Tabassum Kashmiri

Tabassum Kashmiri

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Tabassum Kashmiri shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Tabassum Kashmiri's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Nazm
मैं ने ज़मीं की तपती रगों पे हाथ धरे हैं
मैं ने ज़मीं की तपती रगों से
तपते लहू को उबलते देखा है
उन रस्तों पे उन गलियों पे
पत्थर जैसी सख़्त हवा के
सुर्ख़ धमाके देखे हैं
रात की मुतवर्रिम घड़ियों में
ज़र्द मकानों के सेहनों में
लहू को गिरते देखा है
क़तरा क़तरा क़तरा
क़तरा क़तरा बनते बनते एक समुंदर
इक बे-पायाँ तपता सुर्ख़ समुंदर
ज़र्द मकानों की रग रग में
तपता सुर्ख़ समुंदर
उन गलियों की बूढ़ी छाल पे इफ़्रीतों के हमले
तपती ज़मीं के सातवीं तलवे तक लहराती अंधी चीख़ें
कितनी ही ज़ालिम सदियों से
अंधी चीख़ें मेरे तपते जिस्म के जलते ख़लियों
ज़र्द मसामों के दर्रों में भटक रही हैं
चीख़ें मेरे जिस्म की इक इक रग में यूरिश करती हैं
नफ़रत का तीखा लशकारा जिस्म को काटता रहता है
जिस के अंदर जिस्म के बाहर
ख़ून का अंधा लावा बहता रहता है
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वादी की सब से लम्बी लड़की के जिस्म के सब मसामों से
रेशम से ज़्यादा मुलाएम और नर्म ख़मोशी में
घंटियों की आवाज़ें आ रही थीं
बरखा की उस नम-ज़दा रात में
जब उस के जिस्म पे क़ौस-ए-क़ुज़ह चमकी
तो घंटियाँ तेज़ तेज़ बजने लगीं
मिरे कानों में आहटें आ रही थीं
धुँद से भी नर्म और मुलाएम बादलों की दबे पाँव आहटें
वो जब रेशम के कच्चे तारों से बनी हुई
रात के फ़र्श पर लेटी
तो क़ौस-ए-क़ुज़ह और भी शोख़ और गर्म रंगों में ढलने लगी
वो सैंकड़ों रंगों से मुरत्तब-शुदा लड़की
रात गए तक गर्म रंगों में पिघलती गई
सुब्ह होने पर सूरज की पहली किरन
रौज़न से कमरे में दाख़िल हुई
तो उस के जिस्म से
रात की ख़्वाबीदा घंटियों की आवाज़ें सुन कर
और उस के जिस्म पे सोए हुए गर्म रंगों को देख कर
एक दम शरमा गई
वादी की सब से लम्बी लड़की
धुँद से भी नर्म और रेशम से मुलाएम
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ज़वाल के आसमानों में लड़खड़ाते
अँधेरे ख़लाओं की दुनियाओं में मुअ'ल्लक़ होते
अँधेरे शहरों के बुर्जों की गुमनाम फ़सीलों पर गिरते
तशद्दुद से आबाद इंसानी बस्तियों के चेहरों से लिपटते
और इंसानी वजूद की धज्जियाँ देख कर चीख़ते रोते
कितने हज़ार साल बीत गए हैं

कितने हज़ार सालों से ज़वाल की चीख़ों को सुनते सुनते
साअतें थक गई हैं
साअतें अज़-बस थक गई हैं
जली हुई इशतिहाओं की क़ौसें
ज़ाइचों के हुरूफ़ देखते देखते दम तोड़ चुकी हैं
ख़्वाहिशों के बे-पायाँ हुजूम
हसरतों की सुर्ख़ मेहराबों के नीचे
सदियों की दबीज़ गर्द के अंदर धँसते चले गए हैं
ख़ाकिस्तरी अय्याम की मुतवर्रिम धूल में
बे-अंत मुतलाहटों के वार सहते सहते
सब कुछ मदफ़ून हो गया है
मगर अब ये ज़वाल की आख़िरी चीख़ है
साहिलों पर परिंदों के नए क़ाफ़िलों का शोर है
और बादबानों पे सुर्ख़ रंगों की फड़फड़ाहट
गुम-गश्ता शहरों की बे-आबाद फ़सीलों के बुर्जों पर
हम ज़वाल की आख़िरी साअ'तों की
आख़िरी हिचकियाँ सुन रहे हैं
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मुझे लगता है
ज़मीन के किसी गुमनाम मंतक़े में
हम कभी साथ साथ रहते थे
मुझे अब तुम्हारा नाम याद नहीं
तुम्हारी शक्ल भी याद नहीं
मगर ये लगता है
कि शायद कई सदियाँ पहले
किसी पिछले जन्म की सीढ़ियों पर
हम साथ साथ बैठते थे
वो सीढ़ियाँ कहाँ थीं
और पिछ्ला जन्म कहाँ हुआ था
मुझे तो याद नहीं
शायद तुम को भी याद न होगा
हाँ बस इतना याद है
एक छोटे से घर में
हम सर-ए-शाम देवता के लिए दिए जलाते थे
और दियों के क़रीब एक पंछी रहता था
जो बादल बरखा और धूप के गीत गाता था
गीत सुनते सुनते
और दिए बुझने से पहले ही
हम नमदों पर सो जाते थे
और फिर हम दोनों मिल कर
एक जैसा कोई ख़्वाब देखते थे
बहुत से तालाबों जंगलों
और बाग़ों का ख़्वाब
सुब्ह-दम अँगनाई में सूरज उतर आता था
पंछी पेड़ों पर
और एक बादल छत पर बैठ जाता था
फिर हम चौखट पर बैठ कर
रंगों की बाज़गश्तें सुनते हुए
एक तालाब को देखते रहते थे
मुझे लगता है ये हम ही थे
जो तालाब की तरफ़ देखते और बाज़गश्तें सुनते थे
हाँ शायद हम ही थे
अब ये याद नहीं उस समय हमारे नाम क्या थे
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छटी बार जब मैं ने दरवाज़ा खोला
तो इक चीख़ मेरे बदन के मसामों से चिमटी
बदन के अँधेरों में उतरी
मिरा जिस्म उस चीख़ के तुंद पंजों से झुलसी हुई
बे-कराँ चीख़ था
मैं लरज़ता हुआ कोहना गुम्बद से निकला
और चीख़ मेरे बदन से सियाह घास की तरह निकली
बदन के करोड़ों मसामों के मुँह पर
सियाह चीख़ का सुर्ख़ जंगल उगा था
कोई चीख़ अब भी उभरती थी जिस से
गुम्बद के दीवार-ओ-दर काँपते थे
कोई शय दिखाई नहीं दे रही थी
फ़क़त इक धुआँ था
जो गुम्बद के सूराख़ से अपने पाँव निकाले
हवाओं के बे-दाग़ सीनों से चिमटा हुआ था
सातवीं बार फिर मैं ने दरवाज़ा खोला
तो मेरे लहू की हर इक बूँद में
सातवीं बार फिर सरसराती हुई चीख़ गुज़री
मैं ने देखा कि गुम्बद में मैली ज़मीं पर
नज़्अ' की हालत में इक लाश है
जिस ने अब सातवीं बार मेरे बदन में
सातवीं चीख़ का गर्म लावा उतारा
ये ज़वाल की आख़िरी सर्द चीख़ों की इक चीख़ थी
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हम शोरीदा कड़वे तल्ख़ कसीले ज़ाइक़े
रात की पुर-शहवत आँखों से टपके ताज़ा क़तरे
शाम के काले सियाह माथे की नंगी मख़रूती ख़ारिश
दोपहरों के जलते गोश्त की तेज़ बिसांद
रात की काली रान से बहता अंधा लावा
ख़लीज की गहराई से बाहर आता
क़दम क़दम पर ख़ौफ़ तबाही दहशत पैदा करता
बिखर रहा है
रातों की सय्याल मलामत अपनी लम्बी ज़ुल्फ़ बिखेरे
कड़वे मौसम के जश्नों में नाच रही है
कड़वे तल्ख़ कसीले ज़ाइक़ों के इन जश्नों में
गर्दन तक मैं पिघल गया हूँ
माथे पर इन शोरीदा जश्नों की मोहरें सब्त हुई हैं
कड़वे ज़ाइक़े जोंकें बन कर तालू से अब चिमट गए हैं
तेज़ और तुंद तेज़ाबी सूरज
हाँपते और कराहते सर्द मकानों की मुतवर्रिम चीख़ें
मुतवर्रिम साँसों में सुर्ख़ तशद्दुद की चीख़ें
मेरे कान में सुर्ख़ तशद्दुद की चीख़ों की
छावनियाँ आबाद हुई हैं
हम शोरीदा कड़वे तल्ख़ कसीले ज़ाइक़े
नौ-ज़ाइदा शहरों के मुँह पे
क़तरा क़तरा टपक रहे हैं
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अगर मुझ से मिलना है आओ मिलो तुम
मगर याद रखना
मैं इक़रार की मंज़िलें रास्ते ही में छोड़ आया हूँ
अब मुझ से मिलना है तुम को तो इंकार की सरहदों पे मिलो
झींगुरों मकड़ियों के जनाज़े
मैं रस्ते पे छोड़ आया हूँ
पुरानी कथाएँ मुझे खींचती हैं
ज़मीं का ज़वाल आज ज़ंजीर-ए-पा बन रहा है
ख़स-ओ-ख़ाक के सारे रिश्ते
मैं ने हर शय को अब तज दिया है
कोई मा'ज़रत भी नहीं है
कि मैं मा'ज़रत के सभी झूटे लफ़्ज़ों को
अपनी लुग़त से निकाल आया हूँ
मैं इंकार के आसमानों पे फिरता हुआ
मैं इंकार का विर्द करता हुआ
मैं ज़मीनों पे और आसमानों की हर शय पे
इंकार की सुर्ख़ मोहरें लगाता हुआ
और दमा-दम की इक थाप पे
मैं ने सातों ज़मीनों के सातों तबक़ आज रौशन किए हैं
देखना आसमाँ रक़्स करने लगा है
ज़मीनों के सारे ख़ज़ाने उबलने लगे हैं
सारे दफ़ीने जड़ों से उखड़ कर
मिरे सामने हाथ बाँधे खड़े हैं
मेरी आवाज़ पर मछलियाँ पानियों से निकल आई हैं
आज अर्ज़-ओ-समावात की सारी पोशीदा ख़बरें मैं सुनने लगा हूँ
मैं ख़ुश हूँ मुझे आगही मिल गई है
बदन के मसामों से अब आगही शो'ला बन कर चमकने लगी है
अजब कश्फ़ की रौशनी है
ज़मीं अपनी सत्ह से पाताल तक रौशनी में नहा कर
शब-ए-अव्वलीं की दुल्हन की तरह आज शर्मा रही है
ताज़ा हवाओं की दोशीज़गी सात रंगों में बरहना हुई है
हयाओं की सुर्ख़ी से चेहरा कँवल है
कि मेरी दुल्हन का बदन फूल है
वो हवाओं के रंगों में डूबी हुई है
हवाओं की दोशीज़गी सात रंगों में बरहना हुई है
हर इक शय नक़ाब अपना उल्टे हुए है
सभी भेद अपनी ज़बानें निकाले मिरे सामने आ गए हैं
किताबों के औराक़ ख़ुद बोलते हैं
ज़मीं आसमाँ की हर इक शय
समुंदर हवाएँ ज़मीनों की सतहें
सत्हों के नीचे सदियों के चेहरे
पहाड़ों की बर्फ़ें बर्फ़ों के शोरीदा पानी
सदियों के प्यासे समुंदर के साहिल दरख़्तों के पत्ते
फूलों के चेहरे और रोज़-ओ-शब के सफ़ेद-ओ-सियाह सिलसिले
हर इक शय मुझे अपने भेदों से असरार से
आश्ना कर रही है
अजब आश्नाई की लज़्ज़त मिली है
मैं इस आश्नाई की लज़्ज़त से सरशार हो कर
मुक़द्दस ज़मीं के पुराने दुखों को गले से लगा कर
मैं इक़रार की मंज़िलें रास्ते ही में छोड़ आया हूँ
मैं सारी पुरानी कथाएँ जला कर
फ़क़त इक दमा-दम की आवाज़ पर रक़्स करता हुआ
मैं इक़रार की सरहदों से परे आ गया हूँ
अब मुझ से मिलना है तुम को
तो आओ मिलो
मगर याद रखना
मैं इक़रार की दुश्मनी पर उतर आया हूँ
अब मैं इंकार की सरहदों पे मिलूँगा
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जिस रोज़ धूप निकली
और लोग अपने अपने
ठंडे घरों से बाहर
हाथों में डाले
सूरज की सम्त निकले
उस रोज़ तुम कहाँ थे

जिस रोज़ धूप निकली
और फूल भी खुले थे
थे सब्ज़ बाग़ रौशन
अश्जार ख़ुश हुए थे
पत्तों की सब्ज़ ख़ुशबू
जब सब घरों में आई
उस रोज़ तुम कहाँ थे

जिस रोज़ आसमाँ पर
मंज़र चमक रहे थे
सूरज की सीढ़ियों पर
उड़ते थे ढेरों पंछी
और साफ़ घाटियों पर
कुछ फूल भी खुले थे
उस रोज़ तुम कहाँ थे

जिस रोज़ धूप चमकी
और फ़ाख़्ता तुम्हारे
घर की छतों पे बोली
फिर मंदिरों में आईं
ख़ुशबू भरी हवाएँ
और नन्हे-मुन्ने बच्चे
तब आँगनों में खेले
उस रोज़ तुम कहाँ थे

जिस रोज़ धूप निकली
जिस रोज़ धूप निकली
और अलगनी पे डाले
कुछ सूखने को कपड़े
जब अपने घर की छत पे
ख़ामोश मैं खड़ा था
तन्हा उदास बेलें
और दोपहर के पंछी
कुछ मुझ से पूछते थे
उस रोज़ तुम कहाँ थे
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रात भर कुत्ता उस के पेट में भौंक रहा था
कैसी कैसी आवाज़ें थीं
भौं भौं भौं भौं
वूँ वूँ वूँ वूँ
सारा कमरा उस की पागल आवाज़ों से
वूँ वूँ करता हाँप रहा था
गज़-भर लम्बी सुर्ख़ ज़बाँ भी
उस के हल्क़ से निकल रही थी
रालें मुँह से टपक रही थीं
हिलते कान और हिलती दुम से
कुत्ता भौं भौं भौं भौं करता
उस के पेट में भौंक रहा था
वो सोया था गहरी नींद में
कुत्ता सूँघ के गोश्त की ख़ुशबू
ख़्वाब से यक-दम जाग उठा था

दिन निकला था
ए-के-शैख़ अब भूरे सूट के अंदर बंद था
ज़र की मेहराबों के नीचे
लम्हा लम्हा दौड़ रहा था
उस के बातिन और ख़ारिज में
ज़र्द जहन्नम गर्म हुआ था

रात आई है ए-के-शैख़ अब घर आया है
कुत्ता उस के पेट में फिर से भौंक पड़ेगा
रात भर उस के टूटते जिस्म पे
कुत्ता अपनी दुम को हिलाता
इस कोने से उस कोने तक
भौंक भौंक कर ग़ुर्राएगा
मुँह से रालें टपकाएगा
कुत्ता सूँघ के गोश्त की ख़ुशबू
जिस्म की दीवारों के ऊपर
दौड़ दौड़ के थक जाएगा सो जाएगा

दिन निकला है
ए-के-शैख़ अब नीले सूट के अंदर बंद है
ए-के-शैख़ अब कार-गहों की छत के नीचे
पूरे ज़ोर से चीख़ रहा है
ए-के-शैख़ के पूरे जिस्म पे
ज़र्द जहन्नम फैल रहा है
ज़र की मेहराबों के नीचे
कज-बातिन और पागल कुत्ता दौड़ रहा है
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