Jafar Raza

Jafar Raza

@jafar-raza

Jafar Raza shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Jafar Raza's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
देखे तो तमद्दुन का बनना कोई उर्दू में
बेगाना मिज़ाजों की है दोस्ती उर्दू में

अल्फ़ाज़ नए ढाले क्या क्या नई उर्दू में
राइज मुतबादिल हैं जिन के कई उर्दू में

है क़ैद इलाक़े की मज़हब की न मिल्लत की
मिलते हैं दिल-ओ-जाँ के रिश्ते कई उर्दू में

ज़ोलीदा-बयाँ वो हैं पेचीदा ज़बाँ उन की
इक शर्त सफ़ाई की बस रह गई उर्दू में

है तर्जुमे के बल पर ये दाम-ए-ज़बाँ-दानी
इक काविश-ए-बे-दानिश फिर फँस गई उर्दू में

अब शायद इसी सूरत कुछ बात बने उन की
सोची थी जो इंग्लिश में तहरीर की उर्दू में

ये उन की निगारिश है या दूसरों की उतरन
ये सारी बड़ी बातें हैं कौन सी उर्दू में

देखी जो मिरी उचकन वो शोख़ पुकार उट्ठा
जचने लगे सरकार अब अपनी नई उर्दू में

क्या ख़ूब ही जचती है इन मशरिक़ी कपड़ों में
अंग्रेज़ी में ये क्या थी क्या हो गई उर्दू में

शिकवा न शिकायत है पेचीदा बयानी की
क्यूँ तल्ख़ ये लहजा है कहिए भई उर्दू में
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Jafar Raza
कब हवा मुट्ठी में आती है अबस दौड़ा किया
जाने क्या क्या कल यूँही मैं रात-भर सोचा किया

अब तो इस तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ में मुझे भी लुत्फ़ है
जो किया तुम ने मिरी ख़ातिर बहुत अच्छा किया

जैसे वो भी फ़लसफ़े के नुक्ता-ए-पेचीदा हों
मेरी बातें मेरे बदले ग़ैर से समझा किया

फिर मुझे दरयाफ़्त करने की उसे हसरत रही
वो मुझे दीमक लगे औराक़ में ढूँढा किया

ख़ू में चाहे तुंद हो दिल से निहायत नेक है
भूल कर सब पिछली बातें मेरे पास आया किया

तिश्नगी मेरा मुक़द्दर है मुझे पानी से क्या
जानता था फिर भी ख़ेमा नहर पर बरपा किया

कल वही शब थी जो आती है नसीबों से मगर
और सब सोते रहे बस एक मैं जागा किया

जब नई आवाज़ उट्ठी क़त्ल करने आए लोग
इक मदारी साँप का सर मान कर कुचला किया
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Jafar Raza
हदीस-ए-इश्क़ को उन्वान ला-जवाब मिला
मुझे निगाह मिली है उसे शबाब मिला

हमें नसीब से क़ुरआन ला-जवाब मिला
वरक़ जहाँ से खुला ज़िंदगी का बाब मिला

ख़ुदा के फ़ज़्ल से जूया-ए-इल्म-ओ-दानिश को
नबी सा शहर मिला और अली सा बाब मिला

गुनाहगार हमीं थे तमाम ख़िल्क़त में
हमें को अशरफ़-ए-मख़्लूक़ का ख़िताब मिला

बस एक ख़्वाब की ता'बीर ढूँढते गुज़री
तमाम-उम्र का हासिल बस एक ख़्वाब मिला

झुकी झुकी सी निगाहों में इज़्तिराब निहाँ
न जाने कितने हिजाबों में बे-हिजाब मिला

जमाल-ए-यार की रानाइयों में आख़िर-ए-शब
कहीं ये काहकशाँ थी कहीं शहाब मिला

ज़मीन-ए-शेर हुई आफ़्ताब-ए-बुर्ज-ए-शरफ़
'अनीस' फ़न में तिरे लुत्फ़-ए-बू-तराब मिला

सुख़न समझते हैं 'जाफ़र'-रज़ा कई अहबाब
जो राह-ए-शौक़ में नग़्मात का सराब मिला
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Jafar Raza
ज़ात के गर्द फ़सीलें हैं रियाज़त मा'लूम
सिर्फ़ जन्नत के लिए है तो इबादत मा'लूम

ये भी इक शान-ए-रहीमी है तिरी इज़्ज़-ओ-जल
न तो मंज़िल की ख़बर है न मसाफ़त मा'लूम

वो भी इक शख़्स है सादा सा मगर पेचीदा
न खुली उस की मोहब्बत न अदावत मा'लूम

ज़ख़्म-ए-दिल हो गए ख़ंदाँ वो मुलाक़ात हुई
है मुझे आप का अंदाज़-ए-अयादत मा'लूम

वही क़ातिल वही मुंसिफ़ वही ऐनी शाहिद
अद्ल और आप की मीज़ान-ए-अदालत मा'लूम

जाँच का हुक्म हक़ाएक़ की है पर्दा-पोशी
उन को पहले से हैं अस्बाब-ए-बग़ावत मा'लूम

ऐसे-वैसे हुए इस शहर में कैसे कैसे
अहल-ए-दस्तार की है हम को नजाबत मा'लूम

ख़ून-ए-नाहक़ से हैं बुनियादें भरी महलों की
क़त्ल होते थे जो होती थी सियादत मा'लूम
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Jafar Raza
सच्चे दिल से वा'दा किया हो ऐसा भी तो हो सकता है
उस का क्या है भूल गया हो ऐसा भी तो हो सकता है

फ़ित्ना-गर का रूप नया हो ऐसा भी तो हो सकता है
मुझ से मिल कर उस से मिला हो ऐसा भी तो हो सकता है

इश्क़ मोहब्बत लाग लगावट शायद इस में कुछ भी न हो
सिर्फ़ तुम्हें महसूस हुआ हो ऐसा भी तो हो सकता है

आप मिरे क़ातिल क्यूँ-कर हों झूट किसी ने उड़ाया होगा
आप का चेहरा उस जैसा हो ऐसा भी तो हो सकता है

अहल-ए-बसीरत धोका खा कर ग़ैर की बातों में आए हों
घर का भेदी कोई रहा हो ऐसा भी तो हो सकता है

पहले भी अब्ना-ए-वतन ने बेचा है नामूस-ए-वतन को
वक़्त ने ख़ुद को दोहराया हो ऐसा भी तो हो सकता है

ज़ो'म-ए-हुकूमत ने ठुकराया रहबर-ए-दीं की दावत-ए-हक़ को
उस का ये अंजाम हुआ हो ऐसा भी तो हो सकता है

दिल तो आख़िर दिल है याराँ कब तक उन के रोके रुकता
पक्का फोड़ा फूट बहा हो ऐसा भी तो हो सकता है

ख़त्म-ए-सफ़र पर अहल-ए-मसाफ़त इतने क्यूँ मायूस हुए हो
इस मंज़िल से सफ़र नया हो ऐसा भी तो हो सकता है
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Jafar Raza
कभी तो दोस्तो अपने वतन की बात करें
कभी तो चाक-ए-दिल-ओ-पैरहन की बात करें

ख़िरद की बज़्म में दीवाने-पन की बात करें
हिकायतों में किसी सीम-तन की बात करें

गुलों के सामने क्या फ़िक्र-ओ-फ़न की बात करें
ये सादा लोग हैं उन से चमन की बात करें

ख़याल-ए-यार सलामत हज़ार बज़्म-ए-तरब
ग़ज़ल के नाम पे गुल-पैरहन की बात करें

मशाम-ए-जाँ में वो गेसू महकते जाते हैं
किसी ख़ुतन की न मुश्क-ए-ख़ुतन की बात करें

निगाह-ए-फ़ित्ना है एक इक अदा क़यामत है
वो लाख बन के बड़े भोलपन की बात करें

भली सी बात अज़ीज़ों पे बार होती है
दयार-ए-ग़ैर में कैसे वतन की बात करें

शनासा चेहरे यहाँ अजनबी से लगते हैं
हों अहल-ए-ज़ौक़ तो अहल-ए-सुख़न की बात करें

जहाँ पे क़त्ल हो उर्दू ज़बाँ नफ़ासत से
चलो कुछ आज उसी अंजुमन की बात करें
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Jafar Raza
हरीम-ए-ज़ात के पर्दे में जुस्तुजू याराँ
ज़हे-नसीब मुझे मेरी आरज़ू याराँ

हवस को इश्क़ बता कर तही-कदू याराँ
मय-ए-अयाग़ से छलका गए लहू याराँ

शबाब है मिरे साक़ी का आफ़्ताब की लौ
बदन है साज़ में दीपक की इक नुमू याराँ

इसी गुनह ने मलाएक पे फ़ौक़ियत बख़्शी
यही गुनह बशरिय्यत की आबरू याराँ

कभी ख़िज़ाँ में कभी ख़ार-ओ-ख़स के पर्दे में
चमन में बिखरे हैं हर-सम्त रंग-ओ-बू याराँ

जिसे मैं ख़ुद से भी कहने की ताब ला न सका
वो एक बात कही उन के रू-ब-रू याराँ

वही तो जाम-ए-शिफ़ा है बला-कशों के लिए
वो इक निगाह जो फिरती है चार-सू याराँ

उसी ख़लिश ने उसे ख़ुद-कुशी पे उकसाया
कि एक शख़्स से मिलता है हू-ब-हू याराँ

ज़माना बदला है रंग-ए-चमन भी बदलेगा
चिनार अब नज़र आते हैं शो'ला-रू याराँ
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Jafar Raza
आतिश-ए-फ़िक्र बदन घुलता हो पैहम जैसे
किसी नागिन ने कहीं चाटी हो शबनम जैसे

बस इसी मोड़ से कुछ आगे है मंज़िल अपनी
हादसे मौत निशान-ए-रह-ए-पुर-ख़म जैसे

बर्फ़-आलूदा गुलों पर ये चमकती किरनें
उन की हँसती हुई आँखें हुईं पुर-नम जैसे

मौसम-ए-गुल में ये पत्तों के खड़कने की सदा
नफ़स-ए-उम्र की आवाज़ हो मद्धम जैसे

ज़ख़्म-ए-दिल रोज़ कुरेदो तो हो लज़्ज़त अफ़्ज़ूँ
इक मुदावा है ग़म-ए-यार हो मरहम जैसे

ओस में डूबे शगूफ़ों की उदासी का धुआँ
किसी बीमार की आँखें हुईं पुर-नम जैसे

आँखों आँखों में कोई बात हुई फूलों में
अपने गुलशन की फ़ज़ा हो गई बरहम जैसे

हुस्न ही हुस्न है कश्मीर के बुत-ख़ाने में
दूधिया चाँदनी फैली हुई पूनम जैसे

ख़ूब 'जाफ़र'-रज़ा अहबाब तुम्हारे हैं ये
जो हवाओं से बदल जाते हैं मौसम जैसे
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Jafar Raza
हम अपने-आप से करते रहे बयाँ तन्हा
तुम्हारी बज़्म में बैठे कहाँ कहाँ तन्हा

तग़य्युरात के आसेब में वजूद मिरा
उजाड़ बन में हो जैसे कोई मकाँ तन्हा

ये सोज़-ओ-साज़ का पैकर ये हड्डियों का नगर
जो आग पाए तो चटख़े उठे धुआँ

कहीं किसी की सियासत न रंग लाई हो
भरे चमन में है क्यूँ आज बाग़बाँ तन्हा

ये बार-ए-इश्क़ जिसे आसमाँ उठा न सका
उठाए फिरता रहा हूँ मैं ना-तवाँ तन्हा

तुम्हारे आने की आहट तो कब से सुनता हूँ
चले भी आओ मिरे पास मेहरबाँ तन्हा

हमीं हरीफ़ रहे और हमीं हलीफ़ हुए
हमारे बा'द हुआ मीर-ए-कारवाँ तन्हा

वही तो दुश्मन-ए-जाँ है उसी से कैसे बचें
वो एक शख़्स जो आया था कल यहाँ तन्हा

यही ज़मीन तमद्दुन की राज़दार रही
यही ज़मीन उगलती रही धुआँ तन्हा
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Jafar Raza
साज़-ए-हस्ती पे अगर गाओ तो कुछ बात बने
शे'र बन जाएँ जो ये घाव तो कुछ बात बने

ये फ़ुतूहात-ए-ख़ला क्या हैं ब-जुज़ तार-ए-हरीर
ज़ात के पर्दों को सरकाओ तो कुछ बात बने

अहल-ए-बीनश हो बने आइवरी-टावर में तो क्या
कभी दीवानों से टकराओ तो कुछ बात बने

ज़ुल्मत-ए-शब में ये तन्हाई गला घोंट न दे
शीशा-ए-कर्ब ही चमकाओ तो कुछ बात बने

इल्म-ओ-दानिश की महकती हुई पुर्वाइयो काश
मेरे सीने में उतर आओ तो कुछ बात बने

ज़ुल्म का साथ न दो मस्लहत-अंदेशी में
आओ हक़-गोयों में आ जाओ तो कुछ बात बने

जिस्म में रूह किराए के मकाँ में जैसे
रूह को अपना बना पाओ तो कुछ बात बने

इन रज़ीलों की ज़बाँ-दानी अयाज़न-बिल्लाह
सय्यद-'इंशा' को बुला लाओ तो कुछ बात बने
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Jafar Raza
नश्तर सी दिल में चुभती हुई बात ले चलें
आए हैं तो ख़ुलूस की सौग़ात ले चलें

वीरानियों के घर में मिरा दम ही घुट न जाए
आ ऐ ख़याल-ए-यार तुझे साथ ले चलें

जब रौशनी थी चलता था साया भी साथ साथ
अब है अँधेरी रात किसे साथ ले चलें

जिस में उमीद-ओ-यास फ़रेब-ए-नज़र रही
इस हफ़्त-ख़्वान-ए-ग़म की रिवायात ले चलें

शम-ए-उमीद जिस में फ़रोज़ाँ न हो सकी
अब उस की बज़्म-ए-नाज़ में वो रात ले चलें

कुछ बेकसों के घर जले कुछ बे-दयार हैं
उन के हुज़ूर अश्कों की बरसात ले चलें

रंग-ए-शफ़क़ में ख़ून-ए-शहीदाँ है जल्वा-गर
अपने अज़ीम मुल्क की सौग़ात ले चलें

अपने नगर में बस यही किर्चें हैं हर तरफ़
कुछ गौहर-ए-तलाफ़ी-ए-माफ़ात ले चलें
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Jafar Raza
हर-सम्त ताज़गी सी झरनों की नग़्मगी से कितनी
मुशाबहत है साक़ी तिरी हँसी से

क्या जाने कितने फ़ित्ने उठते हैं कज-रवी से
वो शख़्स यूँ ब-ज़ाहिर मिलता है सादगी से

अक्सर ग़ज़ल हुई है कुछ ऐसी जाँ-कनी से
जैसे ग़ज़ाल देखे सहरा में बेबसी से

इक मर्द‌‌‌‌-ए-बा-सफ़ा ने लिखा लहू से अपने
इज़्ज़त की मौत बेहतर ज़िल्लत की ज़िंदगी से

सदियों तलक रही है तहज़ीब की निगहबाँ
पत्थर तराशते थे कुछ लोग शाइ'री से

अब आदमी बने हैं इक दूसरे के साइल
अब आदमी गुरेज़ाँ रहता है आदमी से

शोख़ी-ओ-बज़्ला-संजी दोशीज़गी वही है
मासूमियत गई बस एहसास-ए-आगही से

जब हो ग़रज़ तो मलिए वर्ना खिंचे से रहिए
हम तंग आ चुके हैं इस शानदर-ए-दिलबरी से

'जाफ़र'-रज़ा तुम अब तक अच्छे-भले थे लेकिन
मिट्टी ख़राब कर ली क्यूँ तुम ने शाइ'री से
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Jafar Raza
दिल जो मुर्दा हो तो ये रश्क-ए-जिनाँ कुछ भी नहीं
लाला हो सब्ज़ा हो या आब-ए-रवाँ कुछ भी नहीं

ये दहकते हुए ग़ुंचे ये सुलगते हुए दिल
हर तरफ़ सोज़-ए-दरूँ हर्फ़-ए-ज़बाँ कुछ भी नहीं

प्यारे दामन से जुदा हो गए मैं ने देखा
हसरतें बोलीं मियाँ उम्र-ए-रवाँ कुछ भी नहीं

लफ़्ज़-ओ-मा'नी में जो रिश्ता है वो बुनियादी है
सिर्फ़ अल्फ़ाज़ का इक सैल-ए-रवाँ कुछ भी नहीं

कर्दा-ना-कर्दा गुनाहों में कटी उम्र-ए-अज़ीज़
लोग कहते हैं ज़ियाँ वर्ना ज़ियाँ कुछ भी नहीं

बारिश-ए-संग हो शीशे की कमीं-गाहों से
कैसे फ़रज़ाने हो शीशे का मकाँ कुछ भी नहीं

ख़्वाब से ख़्वाब में इक उम्र गिरफ़्तार रहा
अब खला ख़्वाब ब-जुज़ वहम-ओ-गुमाँ कुछ भी नहीं
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