Panna Lal Noor

Panna Lal Noor

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Panna Lal Noor shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Panna Lal Noor's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
गुलों ने मुस्कुराने की सज़ा पाई तो क्या होगा
सज़ा-ए-गुल पे ग़ुंचों को हँसी आई तो क्या होगा

कहीं बेदाद-ए-गुलचीं से परेशाँ हो के ग़ुंचों ने
गुलिस्ताँ में न खिलने की क़सम खाई तो क्या होगा

ये मेरे अश्क मेरे राज़-दाँ हैं मुझ से कहते हैं
अगर हो भी गई बिल-फ़र्ज़ रुस्वाई तो क्या होगा

ये ना-मुम्किन नहीं मिल जाएँ दो इक जाम माँगे से
मगर ये तिश्नगी फिर भी न मिट पाई तो क्या होगा

मिरी जानिब से राज़ इफ़्शा न होगा है यक़ीं मुझ को
सर-ए-महफ़िल वो चश्म-ए-नाज़ शर्माई तो क्या होगा

अभी तो अज़्म-ए-तर्क-ए-बादा-नोशी है ख़ुदा जाने
कभी तौबा मिरी शीशे से टकराई तो क्या होगा

दुआ थी आएँ वो या फिर क़ज़ा आए वो कहते हैं
कहीं अब उन से पहले ही क़ज़ा आई तो क्या होगा

अभी तो है शिकायत 'नूर' को उन के तग़ाफ़ुल से
मगर ख़ुद उस के जज़्बों में कमी आई तो क्या होगा
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Panna Lal Noor
वो एक लम्हा जिसे जावेदाँ कहा जाए
मिले तो हासिल-ए-उम्र-ए-रवाँ कहा जाए

उन्हीं से रूह को फ़रहत उन्हीं से दिल को क़रार
वो हादसात जिन्हें जाँ-सिताँ कहा जाए

इसी में चंद मोहब्बत के दिन भी शामिल हैं
तमाम उम्र को क्यों राएगाँ कहा जाए

मिरे नसीब में लिखे न जा सके तुम से
वो चार तिनके जिन्हें आशियाँ कहा जाए

मिरे हुजूम-ए-तमन्ना की आख़िरी मंज़िल
बस एक मर्ग जिसे ना-गहाँ कहा जाए

अदा-ए-तमकनत-ए-हुस्न का तक़ाज़ा है
हर इक सितम पे उन्हें मेहरबाँ कहा जाए

हर एक क़तरे में सौ सौ हिकायतें होंगी
हज़ार दीदा-ए-तर बे-ज़बाँ कहा जाए

हरीम-ए-दिल में कहीं रह गई ख़लिश बन कर
किसी की याद जिसे नीश-ए-जाँ कहा जाए

हमारे अश्क ही जब 'नूर' रख सके न भरम
फिर और किस को भला राज़दाँ कहा जाए
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Panna Lal Noor
छुपी हुई कहीं सज्दों में सर-कशी तो नहीं
ये मेरी रस्म-ए-इबादत भी बंदगी तो नहीं

बग़ैर वज्ह ये साक़ी की बे-रुख़ी तो नहीं
मैं सोचता हूँ कहीं कुछ ख़ता हुई तो नहीं

मैं मुतमइन हूँ मगर सिर्फ़ ये बता दीजे
ये ग़म जो आप ने बख़्शा है आरज़ी तो नहीं

सभी के दिल में मोहब्बत की आग होती है
सभी को रास भी आए ये लाज़मी तो नहीं

अजल का चेहरा नज़र आए कुछ बंधे ढारस
रह-ए-हयात में इतनी भी रौशनी तो नहीं

तसव्वुरात में कुछ देर खो तो जाता हूँ
मगर अब इन में भी अगली सी दिलकशी तो नहीं

चमन वही है बहारें वही हैं गुल भी वही
मगर गुलों में वो ख़ुशबू वो ताज़गी तो नहीं

हर एक चीज़ नज़र आती है उदास उदास
कहीं ये मेरे ही एहसास की कमी तो नहीं

ये सारे रंज ब-क़ैद-ए-हयात ही तो नहीं
हयात मेरी कोई उम्र ख़िज़र की तो नहीं

किसी पे बरसे कोई बूँद बूँद को तरसे
ये और जो भी हो साक़ी की मुंसिफ़ी तो नहीं

कभी जो 'नूर' कोई रिश्ता-ए-वफ़ा टूटे
ये देख लेना कि आँखों में कुछ नमी तो नहीं
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Panna Lal Noor
वो जो तुम ने ग़म दिया था मुझे साज़गार होता
अगर इतना और होता कि वो उस्तुवार होता

तिरी बे-रुख़ी के सदक़े मुझे आ गया है जीना
न तो रूठता न ज़ालिम मुझे ग़म से प्यार होता

शब-ओ-रोज़ के नज़ारे ये करिश्मे रंग-ओ-बू के
ये तिलिस्म तोड़ देता अगर इख़्तियार होता

उसे वक़्फ़-ए-ख़ाक कर के किया ख़ूब तू ने वर्ना
ये वो ज़र्रा था कि उठता तो फ़लक पे बार होता

कभी एक बार भी तो मिरा तज़्किरा चमन में
ब-ज़बान-ए-गुल न होता ब-ज़बान-ए-ख़ार होता

लो सुनो कि अब ज़माना तुम्हें कह रहा है क्या कुछ
यही मैं जो अर्ज़ करता तुम्हें नागवार होता

मिरे पास-ए-ज़ब्त-ए-ग़म को न हुआ पसंद वर्ना
न मुझे क़रार होता न तुम्हें क़रार होता

अरे 'नूर' कौन सुनता तिरा उज़्र-ए-बे-गुनाही
तू गुनाह भी न करता तो गुनाहगार होता
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Panna Lal Noor
ग़ज़ल कही है हदीस-ए-ग़म-ए-जहाँ की तरह
सुनेंगे लोग इसे अपनी दास्ताँ की तरह

फ़रेब देता हूँ दुनिया को इंकिसारी का
मैं अपने आप में फैला हूँ आसमाँ की तरह

क़दम क़दम पे ज़िया-बारियाँ मआ'ज़-अल्लाह
ये रहगुज़र है कि फैली है कहकशाँ की तरह

ये गुल तो गुल हैं चमन को न बेच दें ज़ालिम
जो रूप अपना बनाए हैं बाग़बाँ की तरह

ज़रूर साज़िश-ए-कलक-ए-अज़ल थी कुछ इस में
पड़ा हूँ एक तरफ़ हर्फ़-ए-राएगाँ की तरह

कहाँ था मेरा नशेमन मैं सब से पूछ आया
किसी का घर न जले मेरे आशियाँ की तरह

टटोल लेना ज़रा उन की आस्तीनें भी
जो तुम से हाथ मिलाते हैं राज़-दाँ की तरह

वो जिन का राज़-ए-मोहब्बत था बे-नियाज़ हुए
हम उन का राज़ छुपाए हैं अपनी जाँ की तरह

कोई तो जान पे खेले है बन के परवाना
जला करे है कोई शम्अ-ए-बे-ज़बाँ की तरह

मिले तो क़ाफ़िले सौ सौ शिकस्ता-पा थे हमीं
उठ उठ के बैठ गए गर्द-ए-कारवाँ की तरह
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Panna Lal Noor
ज़िंदगी को एक रंगीं दास्ताँ समझा था मैं
ज़िंदगी बार-ए-गराँ है ये कहाँ समझा था मैं

हाँ वही आँसू टपक कर कितना रुस्वा कर गए
जिन को अपना राज़दार-ए-बे-ज़बाँ समझा था मैं

उन का दामन थाम कर कितने दरख़्शाँ हो गए
मेरे वो आँसू कि जिन को राएगाँ समझा था मैं

अल्लाह अल्लाह उन के पाए नाज़ का हुस्न-ए-ख़िराम
रहगुज़र थी उन की जिस को कहकशाँ समझा था मैं

तह-ब-तह ज़ुल्म-ओ-सितम की इक रिदा-ए-नील-गूँ
खींच दी सर पर जिसे हफ़्त आसमाँ समझा था मैं

अजीब शख़्स था मंसूर सोचता हूँ मैं
कि दे के सर भी पुकारा किया ख़ुदा हूँ मैं

न सैर-गाह न मेरी क़याम-गाह यहाँ
भटक के हद्द-ए-तअ'य्युन में आ गया हूँ मैं

ख़िरद की सारी हदें पार हो गईं फिर भी
किसी पे ये न खुला आज तक कि क्या हूँ मैं

सुना है जब से हर इक शय में तेरा जल्वा है
बड़े ग़ुरूर से आईना देखता हूँ मैं
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Panna Lal Noor