Kaif Moradaabadi

Kaif Moradaabadi

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Kaif Moradaabadi shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Kaif Moradaabadi's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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रसाई सई-ए-ना-मशकूर हो जाए तो क्या होगा
क़दम रखते ही मंज़िल दूर हो जाए तो क्या होगा

तजल्ली ख़ुद हिजाब-ए-नूर हो जाए तो क्या होगा
ब-ज़ाहिर भी कोई मस्तूर हो जाए तो क्या होगा

हक़ीक़त में कोई महजूर हो जाए तो क्या होगा
नज़र से दूर दिल से दूर हो जाए तो क्या होगा

अभी तो आरज़ी है दोस्त बन कर दुश्मनी करना
जो दुनिया का यही दस्तूर हो जाए तो क्या होगा

ये सब से छुप के ख़ुद को आइने में देखने वाले
नज़र ख़ल्वत में बर्क़-ए-तूर हो जाए तो क्या होगा

लिए जाता है अज़्म-ए-तर्क-ए-उल्फ़त उन की महफ़िल में
नज़र उठते ही दिल मजबूर हो जाए तो क्या

निज़ाम-ए-आशिक़ी क़ाएम है उन की बे-नियाज़ी से
किसी की इल्तिजा मंज़ूर हो जाए तो क्या होगा

हर इक को 'कैफ़' तुम क्यों अपना अफ़्साना सुनाते हो
ग़म-ए-उल्फ़त ग़म-ए-जम्हूर हो जाए तो क्या होगा
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Kaif Moradaabadi
क्या ख़बर थी इश्क़ में ऐसा भी इक दौर आए है
बात कैसी साँस लेता हूँ तो जी घबराए है

रहम कर जज़्ब-ए-मोहब्बत ये सितम क्यों ढाए है
हुस्न और बेताब-ओ-हैराँ किस से देखा जाए है

यूँ तो उन की याद से मिलती है तस्कीन-ए-हयात
और जब तड़पाए है ज़ालिम बहुत तड़पाए है

ख़ुश्क आँखें मुस्कुराते होंट चेहरा मुतमइन
यूँ भी अक्सर दास्तान-ए-ग़म सुनाई जाए है

और तो क्या ज़िंदगी का होश तक छोड़ा नहीं
लूटने वाले कहीं ऐसे भी लूटा जाए है

रंग-ए-गुलशन देखने वाले कभी ये भी तो देख
नन्ही नन्ही पत्तियों में कौन रस दौड़ाए है

इश्क़ के मारे हुए दुनिया को देखें भी तो क्या
जब नज़र उठती है कोई सामने आ जाए है

हुस्न छुपता फिर रहा है मुख़्तलिफ़ पर्दों में 'कैफ़'
इश्क़ की ज़ालिम नज़र के सामने कौन आए है
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Kaif Moradaabadi
जुनून-ए-इश्क़ किसी को भी यूँ न रास आए
वो मेरे पास तो आए मगर उदास आए

जिसे हयात किसी रुख़ से भी न रास आए
किसी के पास न जाए हमारे पास आए

वहाँ से जल्द गुज़र जाएँ रहरवान-ए-हयात
जहाँ भी राह में कोई मक़ाम-ए-यास आए

फ़िराक़-ओ-वस्ल की रूदाद मुख़्तसर ये है
कभी वो पास से गुज़रे कभी वो पास आए

कुछ ऐसे लोग भी देखे जो बज़्म-ए-जानाँ में
उदास उदास गए और उदास उदास आए

ये इज़्तिराब नहीं ने'मत-ए-मुसलसल है
ख़ुदा करे कोई आलम मुझे न रास आए

किसी ने एक इशारे को भी नहीं समझा
हुज़ूर दोस्त बहुत से अदा-शनास आए

ग़म-ए-हयात-ओ-ग़म-ए-दहर बख़्शने वाले
इक ऐसा ग़म भी अता कर जो दिल को रास आए

अदब में 'कैफ़' का दम भी बहुत ग़नीमत है
मुहाल है कि अब ऐसा सुख़न-शनास आए
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Kaif Moradaabadi
जो उठी थी मेरी तरफ़ कभी दिल-ए-मो'तबर की तलाश में
मेरी सारी उम्र गुज़र गई उसी इक नज़र की तलाश में

ग़म-ए-इश्क़ ही को मैं क्या कहूँ तिरे हुस्न को भी नहीं सुकूँ
कभी इस नज़र की तलाश में कभी उस नज़र की तलाश में

जो यही जुनूँ है तो मिल चुकी हमें मंज़िल-ए-ग़म-ए-आशिक़ी
उसी रहगुज़र से गुज़र गए उसी रहगुज़र की तलाश में

सर-ए-मंज़िल आ के पता चला कि क़दम क़दम पे फ़रेब था
कहीं हम-सफ़र की उमीद में कहीं हम-सफ़र की तलाश में

उसे वस्ल कैसा हक़ीक़तन ग़म-ए-हिज्र का भी तो हक़ नहीं
जो तमाम रात गुज़ार दे मगर इक सहर की तलाश में

है अजीब क़िस्मत-ए-'कैफ़' भी ये मिला है हासिल-ए-बंदगी
कि मज़ाक़-ए-सज्दा भी खो दिया किसी संग-ए-दर की तलाश में
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Kaif Moradaabadi
ग़म-ए-हस्ती न कुछ फ़िक्र-ए-दिल-ओ-जाँ है जहाँ मैं हूँ
कि हर हर गाम पर कोई निगहबाँ है जहाँ मैं हूँ

हर इक नज़्ज़ारा सौ पर्दों में पिन्हाँ है जहाँ मैं हूँ
ख़ुदा जाने कहाँ कल बज़्म-ए-इम्काँ है जहाँ मैं हूँ

हर इक जज़्बा तअ'य्युन से गुरेज़ाँ है जहाँ मैं हूँ
ग़म-ए-दिल बे-नियाज़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ है जहाँ मैं हूँ

कमाल-ए-बे-ख़ुदी मंज़िल-ब-मंज़िल काम करता है
जुनून-ए-जुस्तुजू सर-दर-गरेबाँ है जहाँ मैं हूँ

हवा में इक मुसलसल इर्तिआ'श-ए-शौक़ है पिन्हाँ
फ़ज़ा में पैहम इक बिजली सी रक़्साँ है जहाँ मैं हूँ

ग़म-ए-हासिल मुक़य्यद कर रहा है सई-ए-हासिल को
मज़ाक़-ए-आरज़ू दीवार-ए-ज़िंदाँ है जहाँ मैं हूँ

मुझे हर यौम इशरत परतव-ए-रू-ए-निगारीं है
शब-ए-ग़म साया-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ है जहाँ मैं हूँ

कहाँ के ऐश-ओ-ग़म कैसी मुरादें कैसे अंदेशे
कि सारी ज़िंदगी ख़्वाब-ए-परेशाँ है जहाँ मैं हूँ

जुनून इंसान के अंदाज़-ए-फ़रज़ाना को कहते हैं
ख़िरद का नाम एहसास-ए-पशेमाँ है जहाँ मैं हूँ

जो हर मंज़िल में रहबर था वो अब भी साथ है वर्ना
यहाँ हर गाम पर लग़्ज़िश का इम्काँ है जहाँ मैं हूँ

किसी से 'कैफ़' मैं राज़-ए-हक़ीक़त किस तरह पूछूँ
हर इक सूरत हर इक नज़्ज़ारा हैराँ है जहाँ मैं हूँ
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Kaif Moradaabadi
क्या दिलकशी है अंजुम-ओ-ख़ुर्शीद-ओ-माह में
ऐसे न जाने कितने हैं इस जल्वा-गाह में

जन्नत ख़याल में है न दुनिया निगाह में
क्या लज़्ज़तें मिली हैं ग़म-ए-बे-पनाह में

दिल को रहे शुऊ'र जो हाल-ए-तबाह में
मेराज-ए-ज़िंदगी है ग़म-ए-बे-पनाह में

क्या जाने क्या असर था किसी की निगाह में
सौ हुस्न आ गए मिरे हाल-ए-तबाह में

मुझ से निगाह फेर के क्यों जा रहे हो तुम
मेरी तो ज़िंदगी है तुम्हारी निगाह में

मेआ'र-ए-बंदगी-ए-बशर ही बदल दिया
कुछ रिंद आ गए थे किसी ख़ानक़ाह में

रहमत को भी मुआविन-ए-ग़फ़लत बना दिया
यूँ भी कोई न आए फ़रेब-ए-गुनाह में

ईमान और कुफ़्र का झगड़ा ही खो दिया
वो जब कभी समाए किसी की निगाह में

तेरी नज़र की ख़ैर हो कितने ही आइने
टूटे हुए पड़े हैं मोहब्बत की राह में

हम दोनों महव-ए-शौक़ में लेकिन मआल-ए-शौक़
उन की निगाह में है न मेरी निगाह में

ऐसे अदब से देख रहे हैं वो आइना
हाज़िर हो जैसे कोई किसी बारगाह में

पैग़म्बरी रज़ा-ए-इलाही है वर्ना 'कैफ़'
याक़ूब देख सकते थे यूसुफ़ को चाह में
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Kaif Moradaabadi
सब जिसे कहते हैं वक़्फ़-ए-ग़म-ए-जानाँ होना
अव्वलीं शर्त है उस के लिए इंसाँ होना

ग़म के दाग़ों ने बड़ा काम बनाया दिल का
इस सियह-ख़ाने में मुश्किल था चराग़ाँ होना

अपने परतव के सिवा ज़ेहन में कुछ भी न रहा
और सिखलाइए आईनों को हैराँ होना

उफ़ ये दीवानगी-ए-इश्क़ कि इस बज़्म में भी
जब कभी होश में आना तो परेशाँ होना

बज़्म-ए-आलम हो कि महशर मेरी दानिस्त में है
इक तजल्ली का कई रुख़ से नुमायाँ होना

ख़ार-ओ-ख़स को भी निगाहों में रखें अहल-ए-चमन
वर्ना मुमकिन नहीं तंज़ीम-ए-बहाराँ होना

दिल के टुकड़े सर-ए-दामन पे लिए बैठा हूँ
खेल समझा था इलाज-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ होना

मेरा किरदार है ज़ाहिर मिरे अशआ'र से 'कैफ़'
जैसे तस्वीर में इक रंग नुमायाँ होना
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Kaif Moradaabadi
वो क़रीब भी हैं तो क्या हुआ हमें अपने काम से काम है
वही जुस्तुजू वही बे-ख़ुदी वही ज़िंदगी का निज़ाम है

तलब इर्तिक़ा की असास है कि ग़म-ए-असीरी का नाम है
कि जहाँ चमन है वहीं क़फ़स जहाँ दाना है वहीं दाम है

हमा-वक़्त मुझ को यही है ग़म कि उन्हें है मेरा ख़याल कम
मगर इस की फ़िक्र कभी नहीं कि मिरा जुनूँ भी तो ख़ाम है

मुझे मय-कदे में किसी ने कल ये बताया मस्लक-ए-आशिक़ी
जिसे बादा वज्ह-ए-सुरूर हो उसे बादा पीना हराम है

ये है शान-ए-महफ़िल-ए-आशिक़ी कि तवील अर्सा गुज़र के भी
वही बुत-कदे की सी सुब्ह है वही मय-कदे की सी शाम है

ये है कैसा आलम-ए-बे-ख़ुदी नहीं होश उन की रज़ा का भी
जो यही है 'कैफ़' जुनून-ए-ग़म तो जुनून-ए-ग़म को सलाम है
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Kaif Moradaabadi
जल्वे हों रू-ब-रू तो तमाशा करे कोई
जब कुछ नज़र न आए तो फिर क्या करे कोई

हुस्न-ए-लतीफ़ क्यों हो असीर-ए-निगाह-ए-शौक़
हम ख़ुद ये चाहते हैं कि पर्दा करे कोई

सदहा हिजाब-हा-ए-तअ'य्युन के बावजूद
वो क्या करें जो उन की तमन्ना करे कोई

थर्रा के रह गई है मिरी काएनात-ए-होश
ऐसे भी सामने से न गुज़रा करे कोई

किस किस से राह-ए-दोस्त में दामन छुड़ाईए
हर ज़र्रा चाहता है कि सज्दा करे कोई

हर क़ल्ब मुज़्तरिब है मगर उन की मस्लहत
दुनिया ख़राब-ए-ग़म है मगर क्या करे कोई

मेरी निगाह-ए-शौक़ से इस बज़्म-ए-नाज़ में
वो हुस्न आ रहा है कि देखा करे कोई

दिल आश्ना-ए-ग़म हो तो ऐ 'कैफ़' बज़्म-ए-दहर
ऐसा निगार-ख़ाना है देखा करे कोई
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Kaif Moradaabadi
नज़र नज़र से मिलाई क्यों थी नफ़स नफ़स में समाए क्यों थे
उन्हें था मंज़ूर मुझ से पर्दा तो सामने मेरे आए क्यों थे

दयार-ए-हुस्न-ए-वफ़ा-तलब की तरफ़ क़दम ही उठाए क्यों थे
जुनूँ को इल्ज़ाम देने वाले जुनूँ की बातों में आए क्यों थे

इसी ख़ता की सज़ा में अब तक निशान-ए-मंज़िल नहीं मिला है
रह-ए-मोहब्बत में अव्वल अव्वल मिरे क़दम डगमगाए क्यों थे

वो आफ़्ताब-ए-जमाल शायद यहीं कहीं से गुज़र रहा है
जहान-ए-दिल के तमाम ज़र्रे अभी अभी जगमगाए क्यों थे

नफ़स नफ़स सद-ख़लिश बद-आमाल क़दम क़दम पर हज़ार तूफ़ाँ
मैं अब ये समझा कि रोज़-ए-अव्वल वो देख कर मुस्कुराए क्यों थे

उन्हें जो अब 'कैफ़' से है शिकवा कि नज़्म-ए-आलम बिगाड़ डाला
वो ऐसे दीवाने को भला इस ख़िरद की दुनिया में लाए क्यों थे
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Kaif Moradaabadi
चमन वालों से बर्क़-ए-बे-अमाँ कुछ और कहती है
मगर मेरी तो शाख़-ए-आशियाँ कुछ और कहती है

नज़र में उस की यूँ तो सब की ही रफ़्तार है लेकिन
मिरे क़दमों से गर्द-ए-कारवाँ कुछ और कहती है

यहाँ का ज़र्रा ज़र्रा महशर-ए-ग़म है हक़ीक़त में
ब-ज़ाहिर रौनक़-ए-बज़्म-ए-जहाँ कुछ और कहती है

है उन की ही नज़र आईना-ए-दैर-ओ-हरम लेकिन
यहाँ कुछ और कहती है वहाँ कुछ और कहती है

किसी दिन साथ छुट जाने का ख़तरा है उसे शायद
तिरे ग़म से मेरी उम्र-ए-रवाँ कुछ और कहती है

यही तुम को यक़ीं क्यों है कि कोई इल्तिजा होगी
सुनो तो मेरी चश्म-ए-ख़ूँ-फिशाँ कुछ और कहती है

मुझे अपनी सदाक़त पर भी शक है इस ज़माने में
कि दिल कुछ और कहता है ज़बाँ कुछ और कहती है

जहाँ में गो नहीं आसार कुछ ऐसे क़यामत के
मगर गुमराही-ए-अहल-ए-जहाँ कुछ और कहती है

कभी 'कैफ़' इस का लोहा मानते थे लखनऊ वाले
मगर अब अहल-ए-देहली की ज़बाँ कुछ और कहती है
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Kaif Moradaabadi
जुनून-ए-इश्क़ ये क्या रंग-ए-महफ़िल है जहाँ मैं हूँ
जो आलम है मिरा ही आलम-ए-दिल है जहाँ मैं हूँ

यहाँ तक कार-फ़रमा जज़्ब-ए-कामिल है जहाँ मैं हूँ
कि फ़र्क़-ए-ज़ाहिर-ओ-बातिन भी मुश्किल है जहाँ मैं हूँ

सिवा-ए-हुस्न कोई भी नहीं है मक़्सद-ए-हस्ती
सिवा-ए-इश्क़ हर एहसास-ए-बातिल है जहाँ मैं हूँ

जुनून-ए-ग़म का शिकवा किस से कीजे किस तरह कीजे
तजल्ली ख़ुद शरीक-ए-आलम-ए-दिल है जहाँ मैं हूँ

कुछ ऐसी बे-नियाज़ी सी तलाश-ए-चारागर से है
यहाँ हर रंज गोया राहत-ए-दिल है जहाँ मैं हूँ

मुझे तूफ़ान तो उठते हुए महसूस होते हैं
ब-ज़ाहिर कोई दरिया है न साहिल है जहाँ मैं हूँ

शुऊ'र-ए-हर-हक़ीक़त मुनहसिर दीवानगी पर है
मगर दीवानगी एक कार-ए-मुश्किल है जहाँ मैं हूँ

बक़ा तर्ग़ीब देती है मुझे शौक़-ए-फ़रावाँ की
फ़ना मिनजुमला-ए-आसार-ए-मंज़िल है जहाँ मैं हूँ

लिए जाता है कोई 'कैफ़' वर्ना ये हक़ीक़त है
यहाँ तो दो क़दम चलना भी मुश्किल है जहाँ मैं हूँ
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Kaif Moradaabadi
कभी गिर्यां कभी ख़ंदाँ कभी हैराँ हूँ मैं
मुख़्तसर है मिरी रूदाद कि इंसाँ हूँ मैं

सेहन-ए-गुलशन से मिरी ख़ाक-ए-नशेमन न उड़ा
ऐ सबा महरम-ए-असरार-ए-गुलिस्ताँ हूँ मैं

यूँ मुझे दिल से फ़रामोश किए बैठे हैं
जैसे उन का ही कोई ख़्वाब-ए-परेशाँ हूँ मैं

दे के ग़म आप ने तकमील-ए-जुनूँ भी तो न की
सोचिए कब से यूँ ही चाक-ए-गरेबाँ हूँ मैं

बज़्म-ए-कौनैन में अब तक मह-ओ-ख़ुर्शीद सही
उन की महफ़िल में चराग़-ए-तह-ए-दामाँ हूँ मैं

दिल को उम्मीद-ए-करम रखती है मुज़्तर या'नी
ये भी इक हुस्न-ए-तलब है कि परेशाँ हूँ मैं

मुझ को शर्मिंदा न कर मुझ से इक आँसू भी न माँग
ऐ ग़म-ए-दोस्त बहुत बे-सर-ओ-सामाँ हूँ मैं

ये मिरा हाल है नाला भी नहीं कर सकता
और मिरा ज़र्फ़ भी देखो कि ग़ज़ल-ख़्वाँ हूँ मैं

'कैफ़' इस हाल में हैं आज-कल इंसाँ कि मुझे
शर्म आती है ये कहते हुए इंसाँ हूँ मैं
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Kaif Moradaabadi
बढ़े चलो कि ज़माने को ये दिखाना है
जहाँ हमारे क़दम हैं वहीं ज़माना है

ये हुस्न-ओ-इश्क़ की तफ़रीक़ इक बहाना है
कहीं नज़र को कहीं दिल को आज़माना है

अब इस जुनून-ए-तलब का कोई ठिकाना है
कि अपने आप को खो कर भी उन को पाना है

बस एक इश्क़ ही ऐसा शराब-ख़ाना है
जहाँ सुरूर का मफ़्हूम होश आना है

इलाही तमकनत-ए-हुस्न-ओ-नाज़-ए-हुस्न की ख़ैर
कुछ आज इश्क़ का अंदाज़ वालिहाना है

मैं हर गुनाह की हक़ीक़त बता तो दूँ सर-ए-हश्र
मगर उन्हें जो हर इल्ज़ाम से बचाना है

ज़रा जुनून-ए-तमन्ना से दिल गुज़र जाए
फिर इस के बाद कोई दाम है न दाना है

मैं जानता हूँ जो है फ़र्क़-ए-ज़ात-ओ-परतव-ए-ज़ात
मिरी निगाह पस-ए-पर्दा-ए-ज़माना है

किसे नसीब हो सज्दा ये और बात है 'कैफ़'
हर इक जबीं के क़रीब उन का आस्ताना है
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