P P Srivastava Rind

P P Srivastava Rind

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P P Srivastava Rind shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in P P Srivastava Rind's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
माना कि ज़लज़ला था यहाँ कम बहुत ही कम
बस्ती में बच गए थे मकाँ कम बहुत ही कम

मेरे लहू का ज़ाइक़ा चखता रहा था दर्द
तन्हाइयाँ थीं रात जहाँ कम बहुत ही कम

काँटों को सींचती रही परछाइयों की फ़स्ल
जब धूप का था नाम-ओ-निशाँ कम बहुत ही कम

आँगन में धूप धूप को ओढ़े उदासियाँ
घर में थे ज़िंदगी के निशाँ कम बहुत ही कम

मफ़्लूज रात कर्ब के बिस्तर पे लेट कर
करती है अब तो आह-ओ-फ़ुग़ाँ कम बहुत ही कम

क्यूँ दोस्तों की भीड़ से घबरा न जाए दिल
दुश्मन तो रह गए हैं यहाँ कम बहुत ही कम

हम जब से पत्थरों की तिजारत में लग गए
है दोस्ती-ए-शीशा-गराँ कम बहुत ही कम

इतनी अज़ीयतों से गुज़रने के बाद 'रिंद'
ख़ुद पर है ज़िंदगी का गुमाँ कम बहुत ही कम
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P P Srivastava Rind
हम दश्त-ए-बे-कराँ की अज़ाँ हो गए तो क्या
वहशत में अब की बार ज़ियाँ हो गए तो क्या

बासी घुटन से घर के अँधेरे न कम हुए
हम रात जुगनुओं की दुकाँ हो गए तो क्या

उलझन बढ़ी तो चंद ख़राबे ख़रीद लाए
सौदे में अब की बार ज़ियाँ हो गए तो क्या

घर में हमारे क़ैद रहा ज़िंदगी का शोर
हम बे-ज़बान नज़र-ए-फ़ुग़ाँ हो गए तो क्या

हम हैं हमारा शहर है पुख़्ता मकान है
कुछ मक़बरे नसीब-ए-ख़िज़ाँ हो गए तो क्या

सत-रंग आसमाँ की धनक है तुम्हारे साथ
हम दलदली ज़मीन यहाँ हो गए तो क्या

जब धूप आसमान के हुजरे में सो गई
आसेब तीरगी के जवाँ हो गए तो क्या

पतझड़ ने जब से माँग सजाई है अपनी 'रिंद'
हम सूनी रहगुज़र का निशाँ हो गए तो क्या
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P P Srivastava Rind
नशात-ए-दर्द के मौसम में गर नमी कम है
फ़ज़ा के बर्ग-ए-शफ़क़ पर भी ताज़गी कम है

सराब बन के ख़लाओं में गुम नज़ारा-ए-सम्त
मुझे लगा कि ख़लाओं में रौशनी कम है

अजीब लोग हैं काँटों पे फूल रखते हैं
ये जानते हुए इन में मुक़द्दरी कम है

न कोई ख़्वाब न यादों का बे-कराँ सा हुजूम
उदास रात के ख़ेमे में दिलकशी कम है

मैं अपने-आप में बिखरा हुआ हूँ मुद्दत से
अगर मैं ख़ुद को समेटूँ तो ज़िंदगी कम है

खुली छतों पे दुपट्टे हवा में उड़ते नहीं
तुम्हारे शहर में क्या आसमान भी कम है

पुरानी सोच को समझें तो कोई बात बने
जदीद फ़िक्र में एहसास-ए-नग़्मगी कम है

कहाँ से लाओगे ऐ 'रिंद' मो'तबर मज़मून
ग़ज़ल में जबकि रिवायत की चाशनी कम है
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P P Srivastava Rind
फ़ज़ा में कर्ब का एहसास घोलती हुई रात
हवस की खिड़कियाँ दरवाज़े खोलती हुई रात

अजीब रिश्ते बनाती है तोड़ देती है
नई रुतों के सफ़ीरों से बोलती हुई रात

ये धड़कनों के अंधेरे ये ज़ख़्म ज़ख़्म चराग़
किवाड़ ख़ाली मकानों के खोलती हुई रात

अथाह गहरा अंधेरा ग़ज़ब का सन्नाटा
फ़ज़ा में दर्द का तेज़ाब घोलती हुई रात

किधर से आती है आवारा ख़ुशबुओं की तरह
बरहना जिस्म के साए टटोलती हुई रात

न रतजगों के हैं चर्चे न कोई ग़म का अलाव
सँभल के आए ज़रा घर में डोलती हुई रात

कहाँ से लाएँगे सब्र-ओ-सुकून के लम्हे
कि मेरे घर में है कोहराम तौलती हुई रात

हमारे साथ है तन्हाइयों की भीड़ में 'रिंद'
किसी के लम्स की ख़ैरात रोलती हुई रात
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P P Srivastava Rind
पेश-ए-मंज़र जो तमाशे थे पस-ए-मंज़र भी थे
हम ही थे माल-ए-ग़नीमत हम ही ग़ारत-गर भी थे

आस्तीनों में छुपा कर साँप भी लाए थे लोग
शहर की इस भीड़ में कुछ लोग बाज़ीगर भी थे

बर्फ़-मंज़र धूल के बादल हवा के क़हक़हे
जो कभी दहलीज़ के बाहर थे वो अंदर भी थे

आख़िर-ए-शब दर्द की टूटी हुई बैसाखियाँ
आड़े-तिरछे ज़ाविए मौसम के चेहरे पर भी थे

रात हम ने जुगनुओं की सब दुकानें बेच दीं
सुब्ह को नीलाम करने के लिए कुछ घर भी थे

कुछ बिला-उनवान रिश्ते अजनबी सरगोशियाँ
रतजगों के जश्न में ज़ख़्मों के सौदागर भी थे

शब-परस्तों के नगर में बुत-परस्ती ही न थी
वहशतें थीं संग-ए-मरमर भी था कारीगर भी थे

इस ख़राबे में नए मौसम की साज़िश थी तो 'रिंद'
लज़्ज़त-ए-एहसास के लम्हों के जलते पर भी थे
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P P Srivastava Rind
साज़िशों की भीड़ में तारीकियाँ सर पर उठाए
बढ़ रहे हैं शाम के साए धुआँ सर पर उठाए

रेग-ज़ारों में भटकती सोच के कुछ ख़ुश्क लम्हे
तल्ख़ी-ए-हालात की हैं दास्ताँ सर पर उठाए

ख़्वाहिशों की आँच में तपते बदन की लज़्ज़तें हैं
और वहशी रात है गुमराहियाँ सर पर उठाए

चंद गूँगी दस्तकें हैं घर के दरवाज़े के बाहर
चीख़ सन्नाटों की है सारा मकाँ सर पर उठाए

ज़ेहन में ठहरी हुई है एक आँधी मुद्दतों से
हम मगर फिरते रहे रेग-ए-रवाँ सर पर उठाए

आलम-ए-ला-वारसी में जाने कब से दर-ब-दर हूँ
पुश्त पर माज़ी को लादे क़र्ज़-ए-जाँ सर पर उठाए

मुज़्तरिब सी रूह है मेरी भटकता फिर रहा हूँ
मैं कई जन्मों से हूँ बार-ए-गिराँ सर पर उठाए

'रिंद' जब बे-सम्तियों में ख़ुश्क पत्ते उड़ रहे हों
तोहमतें किस के लिए शाम-ए-ख़िज़ाँ सर पर उठाए
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P P Srivastava Rind
नीम के पत्तों का ज़ख़्मों को धुआँ दे दीजिए
फिर मिरी आँखों को पहरे-दारियाँ दे दीजिए

हो सके तो ये नवाज़िश हम फ़क़ीरों पर करें
बुझते रंगों का हमें ये आसमाँ दे दीजिए

शब-परस्तों को भी तस्कीन-ए-अना मिल जाएगी
उन का हक़ है उन को शब-बेदारियाँ दे दीजिए

शाख़ पर काँटों को पैराहन बदलने के लिए
मौसमों को शबनमी बे-सम्तियाँ दे दीजिए

बे-हिसी का ख़ुश्क सा सहरा है आँखों में मिरी
धूल-ए-मंज़र से तो कुछ तुग़्यानीयाँ दे दीजिए

धुँदलके तो नौहा-ख़्वानी में बहुत मसरूफ़ हैं
रात ज़ख़्मी है उसे बैसाखियाँ दे दीजिए

आरिज़ी मौसम को भी एहसास-ए-महरूमी न हो
घर के सन्नाटों को एहसास-ए-ज़ियाँ दे दीजिए

धूप में थोड़ी सी गुंजाइश निकल आए तो 'रिंद'
एक मुट्ठी छाँव का ही साएबाँ दे दीजिए
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P P Srivastava Rind
बे-तअल्लुक़ रूह का जब जिस्म से रिश्ता हुआ
घर में ला-वारिस पस-ए-मंज़र का सन्नाटा हुआ

धूप लहजे में नोकीलापन कहाँ से लाएगी
हम ने देखा है शफ़क़-सूरज अभी बुझता हुआ

चाहता है दिल किसी से राज़ की बातें करे
फूल आधी रात का आँगन में है महका हुआ

सुर्ख़ मौसम की कहानी तो पुरानी हो गई
खुल गया मौसम तो सारे शहर में चर्चा हुआ

आसमाँ ज़हराब-मंज़र गुम-शुदा बेज़ारीयां
लम्स तन्हाई का लगता है मुझे डसता हुआ

हर तरफ़ रोती हुई ख़ामोशियों का शोर है
देखना ये मेरी बस्ती में अचानक क्या हुआ

जिस्म मेरा जागता है दोनों आँखें बंद हैं
और सन्नाटा है मेरी रूह तक उतरा हुआ

आफ़ियत गर चाहते हो 'रिंद' वापस घर चलो
अब तमाशा-गाह का मंज़र है कुछ बिगड़ा हुआ
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P P Srivastava Rind
एहसास-ए-बे-तलब का ही इल्ज़ाम दो हमें
रुस्वाइयों की भीड़ में इनआम दो हमें

ख़ुद्दारियों की धूप में आराम दो हमें
सौग़ात में ही गर्दिश-ए-अय्याम दो हमें

एहसास-ए-लम्स जिस्म की इस भीड़ में कहाँ
काली रुतें गुनाह का पैग़ाम दो हमें

गुम-सुम हिसार-ए-रब्त में है लम्हा-ए-अज़ाब
ख़्वाहिश का कर्ब फ़ितरत-ए-बदनाम दो हमें

बे-ज़ारियों को दश्त-ए-नफ़स में समेट कर
दर्द-आश्ना जुनून के अहकाम दो हमें

दश्त-ए-सराब-ए-संग है माज़ी का इज़्तिराब
गर हो सके तो मुस्तक़िल आराम दो हमें

सौग़ात में मिली है मुझे राएगाँ शफ़क़
किस ने कहा है इस का भी इल्ज़ाम दो हमें

यादों का इक हुजूम है ऐ 'रिंद' और हम
फ़ुर्सत नहीं है इन दिनों आराम दो हमें
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P P Srivastava Rind
फ़ज़ाएँ ख़ुश्क थीं घर की तो बाहर क्यों नहीं देखा
दरीचों से वो हंगामों का मंज़र क्यों नहीं देखा

ज़मीं के ख़ुश्क लब ये मौसमों का ज़हर पीते हैं
तो तुम ने आसमानों का समुंदर क्यों नहीं देखा

फ़ज़ाओं की कसक से कुछ तक़ाज़े भी बदलते हैं
हवस लम्हात को तुम ने कुचल कर क्यों नहीं देखा

सुना ये है समुंदर में जज़ीरे भी नुमायाँ थे
हटा कर बादबाँ तुम ने ठहर कर क्यों नहीं देखा

जो घर में छोड़ आया था कफ़न ओढ़े हुए रिश्ते
न जाने उस ने बस्ती को पलट कर क्यों नहीं देखा

सुना है बर्फ़ से भी उँगलियाँ लोगों की जलती हैं
तो तुम ने सर्द अँगारों को छू कर क्यों नहीं देखा

जनाब-ए-'रिंद' तुम तो पूजते आए हो पत्थर को
जो दरवाज़े पे चस्पाँ है वो पत्थर क्यों नहीं देखा
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P P Srivastava Rind
उफ़ुक़ पे दूधिया साया जो पाँव धरने लगा
मुहीब रात का शीराज़ा ही बिखरने लगा

तमाम उम्र जो लड़ता रहा मिरे अंदर
मिरा ज़मीर ही मुझ से फ़रार करने लगा

सफ़र में जब कभी ला-सम्तियों का ज़िक्र हुआ
हमारा क़ाफ़िला तूल-ए-सफ़र से डरने लगा

सुलग रहा है कहीं दूर दर्द का जंगल
जो आसमान पे कड़वा धुआँ बिखरने लगा

चढ़ी नदी को मैं पायाब कर के क्या आया
तमाम शहर ही दरिया के पार करने लगा

अजीब कर्ब से गुज़रा है जुगनुओं का जुलूस
कहाँ ठहरना था इस को कहाँ ठहरने लगा

हमारे साथ रही है सफ़र में बे-ख़बरी
जुनूँ में सोच का इम्कान काम करने लगा

बहुत अजीब है बातिन की गुमरही ऐ 'रिंद'
सुकूत-ए-ज़ाहिरी टुकड़ों में था बिखरने लगा
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P P Srivastava Rind

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