Qadir Siddiqi

Qadir Siddiqi

@qadir-siddiqi

Qadir Siddiqi shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Qadir Siddiqi's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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रफ़ीक़-ओ-मोनिस-ओ-हमदम कोई मिला ही नहीं
वो क्या जिए जिसे जीने का आसरा ही नहीं

उसे हक़ीक़त-ए-उज़मा समझ के इतराए
वो नक़्श-ए-ज़ीस्त जो सच पूछिए बना ही नहीं

ख़ुदा के वास्ते कुछ रौशनी घटा दीजे
नज़र है ख़ीरा कुछ ऐसी कि सूझता ही नहीं

हवास-ओ-होश-ओ-ख़िरद सब वहाँ सलामत हैं
जहाँ निगाह का जादू कभी चला ही नहीं

वो अपनी ज़ात से बाहर निकल के क्या जाए
वो दीदा-वर जो किसी सम्त देखता ही नहीं

तिरी निगाह के सदक़े तिरी नज़र के निसार
गिरा जो तेरी नज़र से वो फिर उठा ही नहीं

उस एक बात के क़ुर्बान जाइए कि जिसे
तमाम उम्र कहा और कुछ कहा ही नहीं

फ़साना-ए-दिल-ए-सद-चाक का मआल न पूछ
सुना तो उस ने मगर जैसे कुछ सुना ही नहीं

दिखाऊँ भी तो किसे दर्द-ओ-रंज की तस्वीर
मिरे जहाँ में कोई दर्द-आश्ना ही नहीं

मिरे रफ़ीक़ मुझे दरस-ए-मस्लहत क्यों दें
दिलों की बात है याँ मस्लहत रवा ही नहीं

ज़माना उस से ख़ुशी क्यों तलब करे 'क़ादिर'
जिसे ग़मों के सिवा और कुछ मिला ही नहीं
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Qadir Siddiqi
हाए रे अहद-ए-गुज़िश्ता की करम-फ़रमाइयाँ
अंजुमन-दर-अंजुमन तन्हाइयाँ तन्हाइयाँ

इश्क़ को हासिल हैं उन की भी करम-फ़रमाइयाँ
उम्र भर करते रहे हैं जो सितम-आराईयाँ

मिल के दोनों ने मुझे रुस्वा-ए-दुनिया कर दिया
कुछ मेरी नादानियाँ थीं कुछ तिरी दानाइयाँ

लफ़्ज़-ओ-मा'नी में उलझ कर रह गए अहबाब सब
काश कोई देख सकता क़ल्ब की गहराइयाँ

अब ख़ुलूस-ए-दिल की बातें ख़्वाब हो कर रह गईं
जिस तरफ़ देखो फ़क़त परछाइयाँ परछाइयाँ

कोई हँसता तो नहीं आँसू बहाने पर मिरे
बाइ'स-ए-तस्कीन-ए-ख़ातिर हैं मुझे तन्हाइयाँ

देखिए ये भी कि दिल का ख़ून होता तो नहीं
वज्ह-ए-रौनक़ ही सही ये अंजुमन-आराइयाँ

मेरी नज़रों ने उन्हें कुछ गुदगुदाया इस तरह
करवटें लेने लगीं सोई हुई अंगड़ाइयाँ

अहल-ए-दुनिया से शिकायत क्या गिला क्या रंज क्या
मुझ को ले डूबीं मिरे एहसास की गहराइयाँ

दर्द-ए-दिल जब तक न शामिल हो तो 'क़ादिर' शे'र क्या
ज़िंदगी भर करते रहिए क़ाफ़िया-पैमाइयाँ
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Qadir Siddiqi
ग़म-ए-गुनाह से फ़िक्र-नजात से उलझे
तमाम उम्र हम अफ़्सून-ए-ज़ात से उलझे

तवहहुमात से इक जंग थी जो जारी रही
सहाब-ए-मर्ग न अब्र-ए-हयात से उलझे

नफ़स नफ़स पे निगाहें तिरी बदलती रहीं
क़दम क़दम पे नए हादसात से उलझे

तुझे जो मान लिया हम ने बस वो मान लिया
ज़बाँ सिफ़त पे न खोली न ज़ात से उलझे

कभी ख़िरद से निपटना पड़ा कभी दिल से
तग़य्युरात से उलझे सबात से उलझे

बहुत सताया गुज़िश्ता दिनों की यादों ने
यही नहीं कि नए वाक़िआ'त से उलझे

तज़ाद लाख रहा फिर भी ज़िंदगी के लिए
ग़म-ए-अना से ग़म-ए-काएनात से उलझे

हम इस ज़माने में किस को सुनाएँ कौन सुने
दिल-ओ-निगाह की जिन वारदात से उलझे

बिसात-ए-ज़ीस्त सजाई तिरी ख़ुशी के लिए
न जीत से कभी उलझे न मात से उलझे

हमीं ने तेरी निगाह-ए-ग़ज़ब को झेला है
हमीं तिरी निगह-ए-इल्तिफ़ात से उलझे
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Qadir Siddiqi
वाए क़िस्मत कि क़रीब उस ने न आना चाहा
उम्र भर हम ने जिसे अपना बनाना चाहा

क्या कहें उस को ग़म-ए-दुनिया ने कितना घेरा
हम ने जिस दिल को तिरे ग़म से सजाना चाहा

कर दिया और भी मदहोश ज़माने ने उसे
तेरे दीवाने ने जब होश में आना चाहा

हो गई और सिवा लज़्ज़त-ए-ग़म की तासीर
जब कभी हम ने तिरे ग़म को भुलाना चाहा

वक़्त के शो'लों से महफ़ूज़ भला क्या रहते
यूँ तो दामन को बहुत हम ने बचाना चाहा

तेरी यादों के दिए जलते रहे जलते रहे
आंधियों ने तो कई बार बुझाना चाहा

बस इसी जुर्म पे नाराज़ हैं दुनिया वाले
अपने ख़्वाबों का महल हम ने बनाना चाहा

जो उठा उस को गिराने की तो सोची सब ने
जो गिरा उस को न दुनिया ने उठाना चाहा

क़स्र-ओ-ऐवाँ का गिराना तो कोई बात न थी
का'बा-ए-दिल को भी कुछ लोगों ने ढाना चाहा

जब भी सोचा कि हक़ीक़त न छुपाएँ 'क़ादिर'
हम से दुनिया ने नया कोई बहाना चाहा
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Qadir Siddiqi
सोचो तो क़यामत है छलावा है बला है
देखो तो फ़क़त राह में नक़्श-ए-कफ़-ए-पा है

माना कि तिरे हक़ से तुझे कम ही मिला है
ये भी कभी सोचा है कि क्या तू ने दिया है

मैं क़ाफ़िला-ए-वक़्त के हमराह चलूँ क्या
जो शख़्स है पीछे की तरफ़ देख रहा है

औरों के तक़ाबुल में सदा पस्त रहा हूँ
ये भी मिरी ना-कर्दा-गुनाही की सज़ा है

अब अपने ही माज़ी पे यक़ीं आ नहीं पाता
लगता है ये क़िस्सा भी कभी मैं ने सुना है

दुनिया को जो छोड़ा था तो कुछ और था आलम
दुनिया को जो चाहा तो अजब हाल हुआ है

इस दौर को क्या सई-ए-हिदायत की ज़रूरत
जिस दौर का जो शख़्स है फ़रज़ाना बना है

ये भी मिरी क़िस्मत कि उलझ बैठा मैं इन में
कुछ ऐसे अमल जिन की सज़ा है न जज़ा है

उस ग़म को भला क्यों न मैं सीने से लगाऊँ
वो ग़म जो मिरे दोस्त तिरा हुस्न-ए-अता है

मुमकिन हो तो मिल जाओ किसी हाल में इक बार
अब वक़्त का सूरज है कि जो डूब रहा है

'क़ादिर' को शिकायत नहीं ग़ैरों की रविश से
'क़ादिर' को तो अपनों ही ने मायूस किया है
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Qadir Siddiqi
हम फिरे शहर में आवारा-ओ-रूस्वा बरसों
दिल के मंदिर में तिरे वहम को पूजा बरसों

वो बदन चाँद के जैसा था मिरे अक्स के साथ
दिन की रौनक़ में भी इक ख़्वाब सा देखा बरसों

क़ुर्ब ने खोल दिए हुस्न के उक़्दे सारे
ज़िंदगी खाती रही इश्क़ का धोका बरसों

अब तो हँसने की इजाज़त ग़म-ए-दौराँ दे दे
वक़्त रो रो के बहुत हम ने गुज़ारा बरसों

कोई ऐसा न मिला जिस से ख़बर कुछ मिलती
अपना हाल अपनी ही तस्वीर से पूछा बरसों

अब नहीं ताब कि सदमात की यूरिश झेले
तल्ख़ियाँ होती रहीं दिल को गवारा बरसों

ये अलग बात कि रास आया तिरा ग़म हम को
वर्ना घेरे रहा यूँ तो ग़म-ए-दुनिया बरसों

उस से पूछो कि है क्या कैफ़-ए-शिकस्त-ए-उम्मीद
जिस ने झेला है ग़म-ए-वा'दा-ए-फ़र्दा बरसों

एक मासूम लगावट थी कि जिस की ख़ातिर
दिल को मर्ग़ूब रही रंजिश-ए-बेजा बरसों

तुम कि हर साँस में हर आह में हर ख़्वाब में थे
फिर भी हम अपने को पाते रहे तन्हा बरसों

अक़्ल सुलझा न सकी उलझे मसाइल 'क़ादिर'
आँख ने देखा है क़िस्मत का तमाशा बरसों
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Qadir Siddiqi
प्यार का आज चलन दोस्तो दुश्वार है क्यों
आज इंसान ख़ुद इंसान से बेज़ार है क्यों

आज के दौर ने ये कौन सी करवट ली है
आज के दौर में मासूम गुनहगार है क्यों

बे-गुनाहों का लहू शहर में अर्ज़ां ही सही
आसमाँ पर भी वही रंग नुमूदार है क्यों

मैं तो मर जाने को तय्यार हूँ दुश्मन के लिए
मेरा दुश्मन भी मगर मरने को तय्यार है क्यों

क्या तिरे कूचे ही की देन तरहदारी है
तेरे कूचे से जो गुज़रा वो तरह-दार है क्यों

पहले बरसों में भी सुनने को न मिलता था ये नाम
आज होंटों पे हर इक के रसन-ओ-दार है क्यों

क्या हम इस दौर को शुबहात का इक दौर कहें
शक में डूबा हुआ हर शख़्स का किरदार है क्यों

क्यों ख़ुलूस और सदाक़त से नहीं कुछ हासिल
मक्र ही मक्र ज़माने को सज़ा-वार है क्यों

तेरे मयख़ाने के फ़ैज़ान-ओ-करम सब तस्लीम
तेरे मयख़ाने का हर जाम निगूँ-सार है क्यों

कल तक उस शोख़ की यादों पे था जीने का मदार
आज उस शोख़ की हर याद गिराँ-बार है क्यों

गोशा-ए-दिल में भी बुत-ख़ाने हुआ करते हैं
'क़ादिर' इस बात से अब आप को इंकार है क्यों
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Qadir Siddiqi
दिल मुज़्महिल है उन के ख़यालों के बावजूद
इक सैल-ए-तीरगी है उजालों के बावजूद

अल्लह री आरिफ़ाना-तजाहुल की शोख़ियाँ
समझे न मेरा हाल मिसालों के बावजूद

बदला न चश्म-ए-शौक़ का कोई भी ज़ाविया
बिगड़े हुए ज़माने की चालों के बावजूद

वारफ़्तगी-ए-शौक़ अजब ताज़ियाना थी
बढ़ना पड़ा है पाँव को छालों के बावजूद

उन की वफ़ा पे आज भी ईमान है मिरा
ऐ वहम तेरे सदहा सवालों के बावजूद

ये कौन सा मक़ाम है ऐ ज़ोम-ए-आगही
कुछ सूझता नहीं है उजालों के बावजूद

कम हो सका न मर्तबा-ए-बे-ख़ुदी-ए-शौक़
अक़्ल-ओ-ख़िरद के सदहा कमालों के बावजूद

इश्क़ इक ख़याल-ए-ख़ाम है उन के ख़याल में
'क़ादिर' के ऐसे चाहने वालों के बावजूद
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Qadir Siddiqi
बदली हुई नज़रों से अब भी अंदाज़ पुराने माँगे है
दिल मेरा कितना मूरख है वो बीते ज़माने माँगे है

मुद्दत हुई दिल ताराज हुए मुद्दत हुई रिश्तों को टूटे
दुनिया है कि ज़ालिम आज भी वो रंगीन फ़साने माँगे है

दिल है कि वो है मुरझाया सा हर आस का चेहरा है उतरा
हर दोस्त मिरा फिर भी मुझ से ख़ुशियों के ख़ज़ाने माँगे है

हालात ने आँसू बख़्शे हैं तक़दीर में रोना लिखा है
और वक़्त न जाने क्यों मुझ से होंटों पे तराने माँगे है

अक़्ल और ख़िरद दोनों मुझ को देती हैं दुआएँ जीने की
एहसास मिरा मुझ से लेकिन मरने के बहाने माँगे है

बस्ती कैसी महफ़िल कैसी कैसे कूचे कैसे बाज़ार
दुनिया से जहाँ छुप कर रो ले दिल ऐसे ठिकाने माँगे है

हर चाह का बदला चाहत हो हर प्यार का प्यारा हो अंजाम
कुछ सोच ज़रा तू दुनिया से क्या चीज़ दिवाने माँगे है
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Qadir Siddiqi
तेरा फ़िराक़ अर्सा-ए-महशर लगा मुझे
जब भी ख़याल आया बड़ा डर लगा मुझे

जब भी किया इरादा-ए-तर्क-ए-तअल्लुक़ात
क्या जाने क्यों वो शोख़ हसीं-तर लगा मुझे

परखा तो ज़ुल्मतों के सिवा और कुछ न था
देखा तो एक नूर का पैकर लगा मुझे

ख़ुद अपनी ज़ात पर भी न रह जाए ए'तिबार
ऐ वक़्त हो सके तो वो नश्तर लगा मुझे

क्या जाने किस जहान में बस्ते हैं नर्म-दिल
मैं ने जिसे छुआ वही पत्थर लगा मुझे

इक मर्तबा ज़रूर नज़र फिर से उठ गई
जो क़द भी तेरे क़द के बराबर लगा मुझे

क़िस्मत इसी को कहते हैं फूलों की सेज पर
लेटा जो मैं तो काँटों का बिस्तर लगा मुझे

उस फूल का कलेजा मिला ग़म से पाश पाश
जो फूल देखने में गुल-ए-तर लगा मुझे

दिल हँस के झेल जाए ये बात और है मगर
चरका तिरी निगाह का अक्सर लगा मुझे

दुनिया का ये निज़ाम ये मेआ'र-ए-सीम-ओ-ज़र
कमतर लगा मुझे कभी बद-तर लगा मुझे

उन की गली की बात ही 'क़ादिर' अजीब है
हर शख़्स शे'र-फ़हम-ओ-सुख़नवर लगा मुझे
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Qadir Siddiqi
अपनी मोहब्बतों का ये अच्छा सिला मिला
जो भी मिला मुझे वो मुझी से ख़फ़ा मिला

तुझ से बिछड़ के भी मैं न तुझ से बिछड़ सका
जिस राह पर गया मैं तिरा नक़्श-ए-पा मिला

अहल-ए-करम की भीड़ से गुज़री है ज़िंदगी
तुझ सा मगर कोई न करम-आश्ना मिला

दुनिया जफ़ा-शिआ'र रही है ये सच सही
ऐ रह-नवर्द राह-ए-वफ़ा तुझ को क्या मिला

इस को क़ुयूद-ए-अक़्ल ने दीवाना कर दिया
बाहर मिला मुझे तो वो अच्छा-भला मिला

ख़ुशियाँ मिलीं तो आँख झपकने की देर तक
ग़म जो मिला मुझे वो बहुत देर-पा मिला

इस मुख़्तसर हयात में किस किस को रोइए
हर मरहला हयात का सब्र-आज़मा मिला

नादीदा इक कशिश है नहीं जिस का कोई नाम
दिल से निगाह तक इक अजब सिलसिला मिला

बे-ए'तिनाइयों से मिली ताब-ए-ज़ब्त-ए-ग़म
तेरी नवाज़िशों से मुझे हौसला मिला

तेरा करम है तेरी इनायत है ऐ जुनूँ
मैं जिस को ढूँढता था मुझी में छुपा मिला

'क़ादिर' बहुत निहाल है अपनी शिकस्त पर
बाज़ी लगाई दिल की तो उस का मज़ा मिला
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Qadir Siddiqi
हक़ वफ़ाओं का जफ़ाओं से अदा करते हैं लोग
आज की दुनिया को क्या कहिए कि क्या करते हैं लोग

आँख पुर-नम होंट लर्ज़ां दिल ग़मों से पाश पाश
इस तरह भी ज़िंदगी का सामना करते हैं लोग

ऐ ज़माने की रविश तेरी वफ़ा-कोशी की ख़ैर
अहद-ओ-पैमाँ तोड़ कर वा'दा वफ़ा करते हैं लोग

ऐ वफ़ूर-ए-ज़िंदगी ये भी तिरा ए'जाज़ है
ज़हर पीते हैं मुसलसल और जिया करते हैं लोग

उतना उतना दिल में उठता है बग़ावत का ग़ुबार
जितना जितना दिल को पाबंद-ए-वफ़ा करते हैं लोग

उस के पाने की मसर्रत चंद लम्हे भी नहीं
जिस को खो कर उम्र भर आह-ओ-बुका करते हैं लोग

मेरी रूदाद-ए-अलम में कोई पहलू है ज़रूर
सुन के रूदाद-ए-अलम क्यों हँस दिया करते हैं लोग

जब भी होता है जफ़ाओं का कहीं भी तज़्किरा
नाम जाने क्यों तुम्हारा ले लिया करते हैं लोग

सुब्ह-ए-नौ की याद में कटती है हर शाम-ए-फ़िराक़
सुख की उम्मीदों में अक्सर दुख सहा करते हैं लोग

रंज-ओ-ग़म ऐश-ओ-मसर्रत धूप भी है छाँव भी
हँसते हँसते ज़िंदगी में रो दिया करते हैं लोग

कौन काम आता है आड़े वक़्त पर 'क़ादिर' ये देख
ज़ीस्त के हर मोड़ पर यूँ तो मिला करते हैं लोग
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Qadir Siddiqi
रफ़्ता रफ़्ता दिल में इक उलझन नई पाते हैं हम
हम ये समझे थे कि उन को भूलते जाते हैं हम

इस को क्या कीजे कि ये भी खेल है तक़दीर का
ढूँढते हैं जब उन्हें अपना पता पाते हैं हम

चंद आहों पर हमारी है परेशानी उन्हें
सैकड़ों सदमे हैं जो ख़ामोश पी जाते हैं हम

ऐसी दुनिया से शिकायत क्या गिला क्या रंज क्या
फूल बरसाती है दुनिया आग बरसाते हैं हम

बे-तलब हुस्न-ए-अता की शान ही कुछ और है
आप कहते हैं तो लीजे हाथ फैलाते हैं हम

अपनी रूदाद-ए-अलम की अब वो मंज़िल आ गई
कोई सुनता हो न सुनता हो कहे जाते हैं हम

लीजिए तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का तहय्या कर लिया
देखना ये है उसे कब तक निभा पाते हैं हम

ऐ वफ़ूर-ए-ज़िंदगी तल्ख़ाबा-ए-हस्ती न पूछ
ज़ेहन की ख़ुश-फ़हमियों से दिल को बहलाते हैं हम

रंजिश-ए-बेजा ने उन की कर दिया आलम ही और
ज़िंदगी के नाम की गोया सज़ा पाते हैं हम

दोस्त ना-ख़ुश अक़रबा नाराज़ बरहम घर के लोग
सच का दामन थाम कर अच्छा सिला पाते हैं हम

कुछ अजब फ़ितरत है 'क़ादिर' दर्द-ए-दिल की आज-कल
जब कोई देता है तस्कीं और घबराते हैं हम
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Qadir Siddiqi

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