Bakhsh Layalpuri

Bakhsh Layalpuri

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Bakhsh Layalpuri shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Bakhsh Layalpuri's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
हुसूल-ए-मंज़िल-ए-जाँ का हुनर नहीं आया
वो रौशनी थी कि कुछ भी नज़र नहीं आया

भटक रहे हैं अभी ज़ीस्त के सराबों में
मुसाफ़िरों को शुऊर-ए-सफ़र नहीं आया

तमाम रात सितारा-शनास रोते रहे
नज़र गँवा दी सितारा नज़र नहीं आया

हज़ार मिन्नतें कीं वास्ते ख़ुदा के दिए
ये राह-ए-रास्त पे वो राहबर नहीं आया

ज़बान-ए-शेर पे मोहर-ए-सुकूत है अब तक
जलाल-ए-सौत-ओ-सुख़न रंग पर नहीं आया

वो तक रहे हैं अज़ल से फ़राज़-ए-गर्दूं पर
नज़र किसी को भी नज्म-ए-सहर नहीं आया

हमारे शहर के हर संग-बार से ये कहो
हमारी शाख़-ए-शजर पर समर नहीं आया

हर एक मोड़ पे हम ने बहुत सदाएँ दीं
सफ़र तमाम हुआ हम-सफ़र नहीं आया

दयार-ए-ग़ैर से मेरा वो सर-फिरा बेटा
गया है घर से तो फिर लौट कर नहीं आया
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Bakhsh Layalpuri
तिश्नगी-ए-लब पे हम अक्स-ए-आब लिक्खेंगे
जिन का घर नहीं कोई घर के ख़्वाब लिखेंगे

तुम को क्या ख़बर इस की ज़िंदगी पे क्या बीती
ज़िंदगी के ज़ख़्मों पर हम किताब लिक्खेंगे

जिस हवा ने काटी हैं ख़ामुशी की ज़ंजीरें
उस हवा के लहजे को इंक़लाब लिक्खेंगे

झूट की परस्तिश में उम्र जिन की गुज़री है
तीरगी-ए-शब को वो आफ़्ताब लिक्खेंगे

शेर की सदाक़त पर हम यक़ीन रखते हैं
मस्लहत के चेहरों को बा-नक़ाब लिक्खेंगे

सूलियों पे झूलेगा बद-निहाद हर मुंसिफ़
मुंसिफ़ी का जब भी हम ख़ुद निसाब लिक्खेंगे

ग़म नहीं जो ख़्वाबों की लुट गई हैं ताबीरें
हम नज़र के ताक़ों में और ख़्वाब लिक्खेंगे

हिर्ज़-ए-जाँ समझते हैं हम वतन की मिट्टी को
अपने घर के ख़ारों को हम गुलाब लिक्खेंगे

इस ग़ज़ल के परतव में बे-घरों की बातें हैं
बे-घरों के नाम इस का इंतिसाब लिक्खेंगे

हर दलील काटेंगे हम दलील-ए-रौशन से
'बख़्श' सौ सवालों का इक जवाब लिक्खेंगे
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Bakhsh Layalpuri
रुत न बदले तो भी अफ़्सुर्दा शजर लगता है
और मौसम के तग़य्युर से भी डर लगता है

दर्द-ए-हिजरत के सताए हुए लोगों को कहीं
साया-ए-दर भी नज़र आए तो घर लगता है

एक साहिल ही था गिर्दाब-शनासा पहले
अब तो हर दिल के सफ़ीने में भँवर लगता है

बज़्म-ए-शाही में वही लोग सर-अफ़राज़ हुए
जिन के काँधों पे हमें मोम का सर लगता है

खा लिया है तो उसे दोस्त उगलते क्यूँ हो
ऐसे पेड़ों पे तो ऐसा ही समर लगता है

अज्नबिय्यत का वो आलम है कि हर आन यहाँ
अपना घर भी हमें अग़्यार का घर लगता है

शब की साज़िश ने उजालों का गला घूँट दिया
ज़ुल्मत-आबाद सा अब नूर-ए-सहर लगता है

मंज़िल-ए-सख़्त से हम यूँ तो निकल आए हैं
और जो बाक़ी है क़यामत का सफ़र लगता है

घर भी वीराना लगे ताज़ा हवाओं के बग़ैर
बाद-ए-ख़ुश-रंग चले दश्त भी घर लगता है
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Bakhsh Layalpuri
दीदा-ए-बे-रंग में ख़ूँ-रंग मंज़र रख दिए
हम ने इस दश्त-ए-तपाँ में भी समुंदर रख दिए

वो जगह जो लाल-ओ-गौहर के लिए मक़्सूद थी
किस ने ये संग-ए-मलामत उस जगह पर रख दिए

अब किसी की चीख़ क्या उभरे कि मीर-ए-शहर ने
साकिनान-ए-शहर के सीनों पे पत्थर रख दिए

शाख़-सारों पर न जब इज़्न-ए-नशेमन मिल सका
हम ने अपने आशियाँ दोश-ए-हवा पर रख दिए

अहल-ए-ज़र ने देख कर कम-ज़र्फ़ी-ए-अहल-ए-क़लम
हिर्स-ए-ज़र के हर तराज़ू में सुख़न-वर रख दिए

हम तो अबरेशम की सूरत नर्म-ओ-नाज़ुक थे मगर
तल्ख़ी-ए-हालात ने लहजे में ख़ंजर रख दिए

जिस हवा को वो समझते थे कि चल सकती नहीं
उस हवा ने काट कर लश्कर के लश्कर रख दिए

'बख़्श' सय्याद-ए-अज़ल ने हुक्म-ए-आज़ादी के साथ
और असीरी के भी ख़दशे दल के अंदर रख दिए
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असीरान-ए-हवादिस की गिराँ-जानी नहीं जाती
जहाँ से ख़ून-ए-इंसानी की अर्ज़ानी नहीं जाती

दरोग़-ए-मस्लहत के देख कर आसार चेहरों पर
हक़ीक़त-आश्ना आँखों की हैरानी नहीं जाती

निशान-ए-ख़ुसरवी तो मिट गए हैं लौह-ए-आलम से
कुलाह-ए-ख़ुसरवी से बू-ए-सुल्तानी नहीं जाती

अंधेरा इस क़दर है शहर पर छाया सियासत का
किसी भी शख़्स की अब शक्ल पहचानी नहीं जाती

ज़माना कर्बला का नाम सुन कर काँप उठता है
अभी तक ख़ून-ए-शब्बीरी की जौलानी नहीं जाती

फ़ुज़ूँ-तर और होते जा रहे हैं चाक दामन के
रफ़ू-गर से हमारी चाक-दामानी नहीं जाती

ये माना रौशनी को पी गई ज़ुल्मत जिहालत की
मगर इस ज़र्रा-ए-ख़ाकी की ताबानी नहीं जाती
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Bakhsh Layalpuri
मिरे हर लफ़्ज़ की तौक़ीर रहने के लिए है
मैं वो ज़िंदा हूँ मिरी तहरीर रहने के लिए है

सितम-गर ने जो पहनाई मिरे दस्त-ए-तलब में
ये मत समझो कि वो ज़ंजीर रहने के लिए है

मिरा आईना-ए-तसनीफ़ देता है गवाही
मिरा हर नुक़्ता-ए-तफ़सीर रहने के लिए है

रहेगा तो न तेरा ज़ुल्म पर रोज़-ए-अबद तक
हमारे दर्द की जागीर रहने के लिए है

जिसे मीर निगाहों ने कभी देखा नहीं है
मिरे दिल में वही तस्वीर रहने के लिए है

सर-ए-बातिल किया दो-लख़्त जिस ने भी जहाँ में
सलामत बस वही शमशीर रहने के लिए है

जुनून-ए-शौक़ तख़रीब-ए-जहाँ मिट कर रहेगा
मगर हर जज़्बा-ए-ता'मीर रहने के लिए है

न लिक्खा शे'र कोई और समझ बैठे हैं नादाँ
अदब में हर्बा-ए-तश्हीर रहने के लिए है

गुज़र जाएँगे हम दार-ए-फ़ना से 'बख़्श' लेकिन
हमारे शहर की तासीर रहने के लिए है
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Bakhsh Layalpuri
जहान-ए-जुब्बा-ओ-दस्तार की हिमायत क्या
यज़ीद-ए-वक़्त है क्या और उस की बै'अत क्या

मुनाफ़िक़ाना रविश आम होती जाती है
नक़ाब-पोशी-ए-अहबाब की शिकायत क्या

किसी भी शख़्स को अब हर्फ़-ए-हक़ का पास नहीं
पनप रहा है यहाँ पर दरोग़-ए-हिकमत क्या

मुजाविरान-ए-जहालत के बाला-ख़ानों में
सुख़न-तराज़ि-ए-इल्म-ओ-अदब की क़ीमत क्या

मज़ा तो जब है कि रंग-ए-सुख़न हो वज्ह-ए-नुमूद
जो इश्तिहार की मुहताज हो वो शोहरत क्या

मिरे रफ़ीक़ फ़रोग़-ए-जुनूँ के आलम में
है चाक चाक गरेबाँ तो इस पे हैरत क्या

जो मिल रहा है तुम्हें ग़ैर की इनायत से
यही है साँस तो इस साँस की है क़ीमत क्या

ज़बाँ भी एक ज़मीं भी है एक रंग भी एक
तो फिर मियाँ मन-ओ-तू की ये अज्नबिय्यत क्या

झपट रहे हैं सभी सीम-ओ-ज़र के लुक़्मों पर
हवस-गिरी है फ़क़त मंसब-ए-वज़ारत क्या

सियाह दाग़ हैं ये रौशनी के चेहरे पर
मुरीद-ए-जेहल है क्या पेशा-ए-तरीक़त क्या

अज़ल से 'बख़्श' रह-ए-पुर-ख़तर से गुज़रे हैं
जफ़ा-शनासि-ए-अहबाब की शिकायत क्या
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Bakhsh Layalpuri
रुख़-ए-हयात है शर्मिंदा-ए-जमाल बहुत
जमी हुई है अभी गर्द-ए-माह-ओ-साल बहुत

गुरेज़-पा है जो मुझ से तिरा विसाल तो क्या
मिरा जुनूँ भी है आमादा-ए-ज़वाल बहुत

मुझे हर आन ये देता है वस्ल की लज़्ज़त
वफ़ा-शनास है तुझ से तिरा ख़याल बहुत

किताब-ए-ज़ीस्त के हर इक वरक़ पे रौशन हैं
ये तेरी फ़र्दा-निगाही के ख़द-ओ-ख़ाल बहुत

पलट गए जो परिंदे तो फिर गिला क्या है
हर एक शाख़-ए-शजर पर बिछे हैं जाल बहुत

तुम्हें है नाज़ अगर अपने हुस्न-ए-सरकश पर
तो मेरा इश्क़ भी है रू-कश-ए-जमाल बहुत

अज़ान-ए-सुब्ह की हर लय की तार टूट गए
फ़रोग़-ए-ज़ुल्मत-ए-शब का है ये कमाल बहुत

किसी भी प्यास के मारे की प्यास बुझ न सकी
समुंदरों में तो आते रहे उछाल बहुत
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