तुम्हारे पैकर से फूटने वाली रौशनी मेरी राह में है
ये फ़ासला इस लिए गवारा कि इक हक़ीक़त निगाह में है
फ़सील-ए-ग़म गिर गई तो किस से लिपट के रोएँगे शहर-ए-याराँ
ये सोच कर झूम उठा हूँ यारो कि ग़म ख़ुद अपनी पनाह में है
मैं ज़िंदगी तज के आ रहा हूँ इसी लिए मुस्कुरा रहा हूँ
ज़रा बताओ कि किस लिए अब कजी तुम्हारी कुलाह में है
तुम्हारे बाग़ों से दूर वीरान रेगज़ारों में गुल खिले हैं
शफ़क़ उफ़ुक़ के हिसार में है शगुफ़्तगी शाहराह में है
नदी नदी बे-कराँ ख़मोशी शजर शजर सोगवार साए
ये रात बीमार हो गई है कि मुब्तला फिर गुनाह में है
उदास यादों ने बाब-ए-अफ़्कार पर कई बार दस्तकें दीं
मगर क़लम है कि गुल-फ़िशाँ बिन्त-ए-शब की आराम-गाह में है
कोई क़लंदर है कोई दरवेश कोई वहशी है कोई 'राही'
हर एक शोरीदा-सर बराए-सहर तिरी ख़ानक़ाह में है
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